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________________ २४० जैन पारिभाषिक शब्दकोश .""उत्कृष्ट लन्दं-पञ्चरात्ररूपमेकस्यां वीथ्यां चरणशीला (भग २५.२८२ वृ) यस्मात् ततोऽमी उत्कृष्टलन्दानतिक्रमो यथालन्दम्, तदस्त्येषाम्' इति व्युत्पत्त्या यथालन्दिका उच्यन्ते। यथासूक्ष्मबकुश (बृभा १४३८ वृ पृ ४३०) बकुश निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जो प्रकट या तिविहं च अहालंदं, जहन्नयं मज्झिमंच उक्कोसं। अप्रकट में शरीर आदि की सूक्ष्म विभूषा करता है-आंख उदउल्लं च जहण्णं, पणगं पुण होइ उक्कोसं॥ और मुंह का प्रमार्जन करता है। (बृभा ३३०३) किञ्चित्प्रमादी अक्षिमलाद्यपनयन् वा यथासूक्ष्मबकुशः। (द्र लन्द) (स्था ५.१८६ वृप ३२०) यथासूक्ष्मकषायकुशील यदृष्ट आलोचना कषायकुशील निर्ग्रन्थ का एक प्रकार । वह मुनि, जो मानसिक आलोचना का एक दोष। आचार्य आदि के द्वारा जो दोष स्तर पर क्रोध आदि का आसेवन करता है। देखा गया है, मात्र उसी की आलोचना करना। मणसा कोहाईए, निसेवयं होइ अहसुहुमो॥ 'जं दिटुं' ति यदेव दृष्टमाचार्यादिना दोषजातं तदेवालोचयति (भग २५.२८३ वृ) नान्यं दोषम्। (स्था १०.७० वृ प ४६०) यथासूक्ष्मनिर्ग्रन्थ यन्त्रपीडनकर्म निर्ग्रन्थ (निर्ग्रन्थ) का एक प्रकार। अन्तमुहुर्त की स्थिति कर्मादान का एक प्रकार । कोल्हू में ईख, तिल आदि को वाले उपशान्तमोह अथवा क्षीणमोह गुणस्थान के प्रथम या पेरना तथा शिला, ऊखल, मसल आदि का व्यवसाय। अन्तिम समय की अपेक्षा किए बिना सामान्य रूप से सभी 'जंतपीलणकम्मे' त्ति यन्त्रेण तिलेक्ष्वादीनां यत्पीडनं तदेव कर्म यन्त्रपीडनकर्म। समयों में वर्तमान मुनि। (भग ८.२४२ वृ) णियंठे पंचविहे पण्णत्ते. तं जहा-पढमसमयणियंठे. यमनीय अपढमसमयणियंठे, चरिमसमयणियंठे, अचरिमसमय (भग १८.२०६) णियंठे, अहासुहुमणियंठे णामं पंचमे। (द्र इन्द्रिययमनीय, नोइन्द्रिययमनीय) निर्ग्रन्थः क्षीणकषाय उपशान्तमोहो वा "अन्तर्मुहूर्तप्रमाणाया निर्ग्रन्थाद्धायाः प्रथमे समये वर्तमानः एकः शेषेसु द्वितीयः, यवमध्य अन्तिमे तृतीयः, शेषेसु चतुर्थः, सर्वेषु पञ्चम इति। क्षेत्र-मापन का एक प्रकार। आठ यूका का एक यवमध्य (स्था ५.१८८ वृ प३२०) होता है। (अनु ३९९) (द्र यूका) यथासूक्ष्मपुलाक पुलाक निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। प्रमादवश अकल्पनीय वस्तु यवमध्या चन्द्रप्रतिमा को ग्रहण करने का चिन्तन करने वाला अथवा कुछ-कुछ वह चन्द्रप्रतिमा, जिसमें प्रतिमाप्रतिपत्ता शुक्ल पक्ष की एकम अतिचारों का सेवन करने वाला। को भक्त और पान की एक-एक दत्ति लेता है। तिथि-वृद्धि किञ्चित्प्रमादान्मनसाऽकल्प्यग्रहणाद्वा यथासूक्ष्मपुलाकः। के साथ-साथ एक दत्ति बढ़ती जाती है। पूर्णिमा को पन्द्रह (स्था ५.१८५ वृ प ३२०) दत्ति लेता है। कृष्णपक्ष की एकम को चौदह दत्ति और क्रमश: चतुर्दशी को एक दत्ति और अमावस्या को उपवास यथासूक्ष्मप्रतिषेवणाकुशील करता है। प्रतिषेवणाकुशील निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जो जवमझण्णं चंदपडिम पडिवन्नस्स...."अमावासाए से य अपने तप आदि की प्रशंसा सुनकर तुष्ट होता है। अभत्तद्वैभवइ। (व्य १०.३) अहसुहुमो पुण तुस्से, एस तवस्सि त्ति संसाए। यविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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