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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश अइपरिणामगो-अपवादरुचिः। (द्र परिणामक) (जीचूवि पृ. ५४) दर्शनाचार और चारित्राचार के प्रतिकूल आचरण का संकल्प। तिविधे अतिक्कमे पण्णत्ते, तं जहा-णाणअतिक्कमे. दंसणअतिक्कमे, चरित्तअतिक्कमे। (स्था ३. ४४०) (द्र व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार) अतिभार स्थूल प्राणातिपातविरमण व्रत का एक अतिचार। सामर्थ्य से अधिक भार लादना। 'अइभारे' त्ति अतिभारारोपणं तथाविधशक्तिविकलानां महाभारारोपणम्। (उपा १.३२ वृ पृ१०) अतिव्याप्त लक्षणाभास का एक प्रकार। वह लक्षण, जो लक्ष्य और अलक्ष्य दोनों में मिलता है, जैसे-वाय का लक्षण गतिशीलता। लक्ष्यालक्ष्यवृत्तिरतिव्याप्तः। यथा-वायोर्गतिमत्त्वम्। (भिक्षु १.८ वृ) अतिशय छत्ताईए तित्थगराइसए पासइ। (ज्ञा २.१.२६) (द्र अतिशेष ) अतिशेष तीर्थंकरों की विशेष सम्पदा. उसकी संख्या चौंतीस है। चोत्तीसं बुद्धाइसेसा पण्णत्ता.... (सम३४.१) अतिक्रान्त प्रत्याख्यान प्रत्याख्यान का एक प्रकार। वर्तमान में करणीय तप यदि नहीं किया जा सके, उसे भविष्य में करना। 'अइक्कंतं' ति एवमेवातीते पर्यषणादौ करणादतिक्रान्तं आहच पज्जोसवणाए तवं जो खलु न करेइ कारणजाए। गुरुवेयावच्चेणं तवस्सिगेलन्नयाए वा॥ सो दाइ तवोकम्मं पडिवज्जइ तं अइच्छिए काले। एयं पच्चक्खाणं अइक्कंतं होड़ नायव्वं ।। (स्था १०.१०१ ७ प ४७२) अतिचार आचार के अतिक्रमण की दिशा में तृतीय चरण । ज्ञानाचार, दर्शनाचार और चारित्राचार का आंशिक अतिक्रमण। तिविधे अइयारे पण्णत्ते, तं जहा–णाणअइयारे, दंसणअइयारे, चरित्तअइयारे। (स्था ३.४४२) (द्र अतिक्रम, व्यतिक्रम, अनाचार) अतिथिसंविभाग गृहस्थ धर्म का बारहवां व्रत। संयमी को अपने आहार, धर्मोपकरण, औषध और आवास का विधिपूर्वक संविभाग देना। अतिहिसंविभागो नाम नायागयाणं कप्पणिज्जाणं अन्नपाणाईणंदव्वाणं देसकालसद्धासक्कारकमजुअंपराए भत्तीए आयाणुग्गहबुद्धीए संजयाणं दाणं। (आव परि पृ २३) । अतिथिसंविभागश्चतुर्विधो भिक्षोपकरणौषधप्रतिश्रयभेदात्। (तवा ७.२१.२८) अतिपरिणामक वह मुनि, जिसकी मति अर्हत् प्रज्ञप्त उत्सर्ग-अपवाद मार्ग में से केवल अपवाद-मार्ग में परिणत होती है, श्रुतोक्त अपवाद से अत्यधिक अपवाद वाली होती है। जो दव्व-खेत्तकय-कालभावओ जं जहिं जया काले। तल्लेसुस्सुत्तमई, अइपरिणाम वियाणाहि॥ अतीन्द्रियज्ञान इन्द्रियातीत ज्ञान, जो केवल आत्मा के द्वारा होता है, जिसमें इन्द्रियों के माध्यम की अपेक्षा नहीं होती। आत्ममात्रापेक्षम् अतीन्द्रियम्॥ (मनो १.४) (द्र नोइन्द्रियप्रत्यक्ष) अतीर्थंकरसिद्ध वह सिद्ध, जो सामान्य केवली के रूप में मुक्त होता है। अतित्थकरा सामण्णकेवलिणोगोतमादितम्मि अतित्थकरभावे द्विता अतित्थकरभावातो वा सिद्धा अतित्थकरसिद्धा। (नन्दी ३१ चू पृ २६) अतीर्थसिद्ध वह सिद्ध, जो तीर्थस्थापना से पहले अथवा तीर्थ के अभाव में मुक्त होता है। अतित्थं-चातुवण्णसंघस्स अभावो तित्थकालभावस्स वा अभावो।तम्मि अतित्थकालभावे अतिस्थकालभावातो वा जे सिद्धा ते अतित्थसिद्धा। (नन्दी ३१ चू पृ २६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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