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________________ २३२ जैन पारिभाषिक शब्दकोश मिथ्यात्ववेदनीय मिथ्यात्व-पुद्गलों का विशोधन न होने पर जो मोह कर्म सम्यक्त्व को रोकता है। यत्पुनर्जिनप्रणीततत्त्वाश्रद्धानात्मकेन मिथ्यात्वरूपेण वेद्यते तन्मिथ्यात्ववेदनीयम्। (प्रज्ञा २३.१७ वृ प ४६८) मिथ्यादर्शन तत्त्वार्थ-सत्य अर्थों में होने वाली अश्रद्धा। दर्शनमोहोदयात् तत्त्वार्थाश्रद्धानपरिणामो मिथ्यादर्शनम्। (तवा २.६२) (द्र मिथ्यात्व) मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया १. क्रिया का एक प्रकार। मिथ्यादर्शन के निमित्त से होने वाली प्रवृत्ति। मिथ्यादर्शनं-मिथ्यात्वं प्रत्ययो यस्याः सा तथा। (स्था २.१७ वृ प ३८) २. मिथ्यात्वी के कार्यों की प्रशंसा करके उसको मिथ्यात्व में दृढ़ करना। अन्यं मिथ्यादर्शनक्रियाकरणकारणाविष्टं प्रशंसादिभिर्द्रढयति, यथा-साधु करोतीति सा मिथ्यादर्शनक्रिया। (तवा ६.५) मिथ्यादर्शनशल्य शल्य का एक प्रकार. मिथ्यादर्शन, जो अन्तः प्रविष्ट शस्त्र की भांति कष्ट देता है। शल्यते-बाध्यते अनेनेति शल्यं"मिथ्या-विपरीतं दर्शनं मिथ्यादर्शनम्। (स्था ३.३८५ वृ प १३९) मिथ्यादर्शनं शल्यमिव विविधव्यथानिबन्धनत्वान्मिथ्यादर्शनशल्यमिति। (भग १.२८६ वृ) मिथ्यादर्शनशल्य पाप पापकर्म का अठारहवां प्रकार। मिथ्यादृष्टिकोण रूप प्रवृत्ति से होने वाला अशुभ कर्म का बंध (आवृ प ७२) मिथ्यादर्शनशल्य पापस्थान वह कर्म, जिसके उदय से जीव मिथ्यादर्शन शल्य में प्रवृत्त होता है। जिण कर्म नै उदय करी जी, ऊधो सरधै कोड जाण। तिण कर्म नै कह्यो अठारमों जी, मिथ्यादर्शन पापठाण॥ (झीच २२.२३) मिथ्यादृष्टि १. अनंतानुबंधीचतुष्क (क्रोध, मान, माया, लोभ) और दर्शनत्रिक (सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, मिश्रदृष्टि)-इस दर्शनसप्तक के उदय से होने वाली दृष्टि। (द्र मिथ्यादर्शन) २. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान वाले जीव की तत्त्वरुचिक्षायोपशमिक दृष्टि। मिथ्यादृष्ट्यादिजीवानां तत्त्वरुचिरपि क्रमेण मिथ्यादष्टिः, सम्यग्मिथ्यादृष्टिः, सम्यग्दृष्टिश्चेति प्रोच्यते। (जैसिदी ७.६ वृ) (द्र मिथ्यारुचि) ३. वह जीव, जिसका दृष्टिकोण मिथ्या है, मिथ्यात्वी। मिथ्या-विपरीता दृष्टिर्यस्यासौ मिथ्यादृष्टिः । (सम १४.५ वृ प २६) ४. वह नय, जो केवल अपने पक्ष का समर्थन करता है और दूसरे नयों से निरपेक्ष होता है। तम्हा सव्वे वि णया मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा। (सप्र १.२१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान जीवस्थान/गुणस्थान का पहला प्रकार। मिथ्यात्वी-तत्त्व पर मिथ्या श्रद्धा रखने वाले प्राणी की आत्मविशुद्धि, जो दर्शनमोह कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होती है। मिथ्यादृष्टेर्दर्शनमोहक्षयोपशमजन्या विशद्धिर्मिथ्यादष्टिगुणस्थानम्। (जैसिदी ७.३ वृ) मिथ्याप्रयोग मिथ्यादर्शनपूर्वक होने वाला मन, वचन और शरीर का व्यापार। तिविधे पओगे पण्णत्ते, तं जहा-सम्मपओगे, मिच्छपओगे, सम्मामिच्छपओगे। (स्था ३.३९४) प्रयोगः सम्यक्त्वादिपूर्वो मन:प्रभृतिव्यापारः। (स्थावृ प १४१) मिथ्यारुचि तिविहारुई पण्णत्ता, तं जहा-सम्मरुई, मिच्छरुई, सम्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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