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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश २१९ भौमेय देव भवनवासी देव। वह देवनिकाय, जो कुमार की भांति भंगारप्रिय और क्रीडापरायण होता है और जिसका आवासक्षेत्र अधोलोक मण्डलप्रवेश उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें चन्द्र और सूर्य का दक्षिण और उत्तर मंडलों में-एक मण्डल से दूसरे मण्डल में प्रवेश का वर्णन है। चंदस्स सूरस्स य दाहिणुत्तरेसुमंडलेसु जहा मंडलातो मंडले पवेसो तहा वणिज्जति जत्थऽज्झयणे तमज्झयणं मंडलप्पवेसो। (नंदी ७७ चू पृ५८) 'भोमिन्ज' त्ति भूमौ पृथिव्यां भवा: भौमेयका:-भवनवासिनः। (उ ३६.२०४ शावृप७०१) कुमारवदेते कान्तदर्शना सुकुमारा मृदुमधुरललितगतयः श्रृंगाराभिजातरूपविक्रियाः"क्रीडनपराः। (तभा ४.११) (द्र भवनवासी) म मंगल शास्त्र की निर्विघ्न समाप्ति (पारगामिता), प्राप्त अर्थ की स्थिरता और शिष्य-प्रशिष्य-परम्परा की अव्यवच्छित्ति के लिए किया जाने वाला उपक्रम। बहुविग्घाई सेयाई तेण कयमंगलोवयारेहिं। तं मंगलमाईए मझे पज्जंतए य सत्थस्स। पढमं सत्थत्थाऽविग्घपारगमणाय निद्रिं॥ तस्सेव य थेज्जत्थं मज्झिमयं, अंतिम पि तस्सेव। अव्वोच्छित्तिनिमित्तं सिस्सपसिस्साइवंसस्स। (विभा १२-१४) प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थं, फलादित्रितयं स्फुटम्। मंगलं चैव शास्त्रादौ वाच्यमिष्टार्थसिद्धये। (आवहावृ१ पृ १) मण्डलबन्ध प्राचीन दण्डनीति का एक प्रकार । नियमित क्षेत्र से बाहर न जाने का आदेश देना। मण्डलं-इडितं क्षेत्रं तत्र बन्धो-नास्मात् प्रदेशाद् गन्तव्यमित्येवं वचनलक्षणम्। (स्था ७.६६ वृ प ३७८) मण्डली वह कार्यप्रणाली, जो श्रमणों की सामूहिक चर्या के लिए निर्धारित है, जैसे-सूत्रमण्डली, अर्थमण्डली आदि। सुत्ते अत्थे भोयण काले आवस्सए य सज्झाए। संथारे चेव तहा सत्तेया मंडली जइणो॥ सूत्रे-सूत्रविषयेऽर्थे–अर्थविषये, भोजने, काले-कालग्रहे, आवश्यके-प्रतिक्रमणे, स्वाध्यायप्रस्थापने, संस्तारके चैव सप्तैता मण्डल्यो यतेः, एतासु चैकैकेनाचाम्लेन प्रवेष्टुं लभ्यते नान्यथेति। (प्रसा ६९२ वृ प १९६) मघा अधोलोक (नरक) की छठी पृथ्वी का नाम। (स्था ७.२३) (द्र अञ्जना) मणिरत्न चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में से एक रत्न, जिसका प्रकाश बारह योजन तक के क्षेत्र तक फैलता है। यह रत्नधारक को सभी प्रकार के उपद्रवों और रोगों से बचाता है। मणिरत्नं वैडर्यमयं द्वादशयोजनानि यावत्पर्वापरपरतोरूपास तिसष दिक्ष निबिडतममपि तमस्तोममपहरति, यस्य च हस्ते शिरसि वा बद्ध्यते तस्य दिव्यतिर्यग्मनुष्यकृतसमस्तोपद्रवसमस्तरोगापहारं करोति। (प्रसावृप ३५०) मण्डली-उपजीवी वह मुनि, जो मण्डली में भोजन आदि कार्य करता है। दुविहो य होइ साहू, मंडलिउवजीवओ य इयरो य। मंडलिमुवजीवंतो, अच्छइ जा पिंडिया सव्वे॥ (ओनि ५२२) मतिअज्ञान वह मति, जिसका स्वामी मिथ्यादृष्टि होता है। मिच्छदिट्ठिस्स मई मइअण्णाणं। (नन्दी ३६) मतिज्ञान वह ज्ञान, जो केवल इन्द्रिय, केवल मन तथा इन्द्रिय और मन दोनों के निमित्त से होता है। इन्द्रियनिमित्तमेकम, अपरमनिन्द्रियनिमित्तम, अन्यदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्। (तभा १.१४ वृ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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