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________________ २१८ जैन पारिभाषिक शब्दकोश चलाता है, जैसे-कुशील श्रमण। भिन्नायार कुसीलो॥ (व्यभा १५२२) भिन्नावलिका अन्तरावलिका, अपूर्ण आवलिका। एक समय, दो समय आदि से न्यून आवलिका। आवलिकान्तः"भिन्नामावलिकामित्यर्थः "न्यूनां समयादिना। _ (आवनि ३२ हावृ पृ २१) हिताय प्रवृत्त हो। भूतिः-मंगलं सर्वमंगलोत्तमत्वेन वृद्धिर्वा वृद्धिविशिष्टत्वेन रक्षा वा प्राणिरक्षकत्वेन प्रज्ञा-बुद्धिरस्येति भूतिप्रज्ञः। (उ १२.३३ शावृ प ३६८) भूत १. जीव 'था, है और होगा' इसलिए वह भूत है। जम्हा भूते भवति भविस्सति य तम्हा भूए त्ति वत्तव्वं सिया। (भग २.१५) २. वनस्पतिकायिक जीव। भूतास्तु तरवः स्मृताः। (नन्दीहातप १००) ३. वानमन्तर देवों का सातवां प्रकार। इस जाति के देव नीली तथा काली आभा वाले, रूपवान, सौम्य, परिपुष्ट शरीर वाले और नाना प्रकार के विलेपन करने वाले होते हैं। उनका चिह्न है-सुलस। भूताः श्यामाः सुरूपाः सौम्या आपीवरा नानाभक्तिविलेपनाः सुलसध्वजाः कालाः। (तभा ४.१२ वृ) भूतनैगम नैगम नय का एक प्रकार। अतीत में वर्तमान का संकल्प, जैसे-आज भगवान महावीर का निर्वाण दिन है। भूतनैगमः-अतीते वर्तमानसंकल्पः, वीरनिर्वाणवासरोऽद्य। (भिक्षु ५.५) भोग १. इन्द्रियविषयों का आसेवन। २. शब्द आदि इन्द्रियविषय। भोगा-सद्दादयो विसया। (द २.३ जिचू पृ ८२) ३. वह पदार्थ, जिसका एक बार उपयोग किया जाता है, जैसे–माला, चंदन, अगर आदि। (द्र भोगान्तराय) भोगप्रतिघात भोग की प्राप्ति का अवरोध, जो प्रशस्त गति आदि के अभाव में होता है। प्रशस्तगतिस्थितिबन्धनादिप्रतिघाताद भोगानां-प्रशस्तगत्याद्यविनाभूतानां प्रतिघातो भोगप्रतिघातः। (स्था ५.७० वृ प २८९) भोगान्तराय अंतराय कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से पदार्थ के होने पर भी व्यक्ति उसका भोग नहीं कर पाता। सकृदुपभुज्य यत् त्यज्यते पुनरुपभोगाक्षमं माल्यचन्दनागुरुप्रभृति, तच्च सम्भवादपि यस्य कर्मण उदयाद् यो न भुङ्क्ते तस्य भोगान्तरायकर्मोदयः। (तभा ८.१४ वृ) भोजनमण्डली मण्डली का एक विभाग। साधुओं द्वारा एक साथ बैठकर की जाने वाली भोजन-व्यवस्था। (प्रसा ६९२ वृ प १९२) (द्र मण्डली) भौम अष्टाङ्ग महानिमित्त का एक प्रकार। भूमि की स्निग्धता, रूक्षता आदि से लाभ-हानि, जय-पराजय का तथा भूमिगत स्वर्ण आदि द्रव्यों के ज्ञान का प्रतिपादक शास्त्र। भुवो घनशुषिरस्निग्धरूक्षादिविभावनेन वृद्धिहानिजयपराजयादिविज्ञानं भूमेरन्तर्निहितसुवर्णरजतादिसंसूचनं च भौमम्। (तवा ३.३६) भूतवाद (स्था १०.९२) (द्र दृष्टिवाद) भूतिकर्मा मंत्रित राख आदि देकर ज्वर आदि को दूर करने में निपुण। ज्वरादिरक्षानिमित्तं भूतिदानं भूतिकर्म तत्र निपुणः। (स्था ९.२८ वृ प ४२८) भूतिप्रज्ञ जिसकी बुद्धि सर्वोत्तम मंगल, सर्वश्रेष्ठ वृद्धि या सर्वभूत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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