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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश १८९ प्रतिरूपकव्यवहार ये नैर्ग्रन्थ्यं प्रति प्रस्थिता अनियतेन्द्रियाः कथञ्चित्किञ्चि(तसू ७.२२) देवोत्तरगुणेषु-पिण्डविशुद्धिसमितिभावनातपःप्रतिमाभि(द्र तत्प्रतिरूपक व्यवहार) ग्रहादिषु विराधयन्तः सर्वज्ञाज्ञोल्लङ्घनमाचरन्ति ते प्रतिसेवनाकुशीला:। (स्था ५.१८४ वृप ३२०) प्रतिरूपज्ञ (द्र कुशील) विनय के औचित्य को जानने वाला। यथोचितप्रतिपत्तिरूपस्तं जानातीति प्रतिरूपज्ञः। प्रतिषेवणा प्रायश्चित्त (उ २३.१५ शावृ प ५००) अकृत्य का सेवन करने पर प्राप्त होने वाला प्रायश्चित्त। प्रतिषेवणम्-आसेवनमकृत्यस्येति प्रतिषेवणा"इति प्रतिषेप्रतिरोधक कर्म वणाप्रायश्चित्तम्। (स्था ४.१३३ वृप १८९) अन्तराय कर्म, जो आत्मा की शक्ति का प्रतिघात करता है। शक्तेः प्रतिघातस्य हेतु भवति। (जैसिदी ४.२ वृ) प्रतिष्ठा शक्तिप्रतिघातकम्-अन्तरायः। (जैसिदी ४.३ वृ) धारणा की चौथी अवस्था, जिसमें अवधारित अर्थ प्रभेदपूर्वक हृदय (मस्तिष्क) में प्रतिष्ठित होता है। प्रतिलेखना 'पति' त्ति सो च्चित अवधारितत्थो हितयम्मि प्रभेदेन अहिंसा की दृष्टि से वस्त्र-पात्र आदि को यथासमय पइट्ठातमाणो पतिट्ठा भण्णति। (नन्दी ४९ चू पृ ३७) सावधानीपूर्वक देखना। अक्षरानुसारेण प्रतिनिरीक्षणमनुष्ठानं च यत्सा प्रतिलेखना। प्रतिसंलीनता (ओभा ३ वृ प६) (स्था ६.६५) (द्र संलीनता) प्रतिवासुदेव वह राजा, जो चक्रयोधी होता है तथा वासुदेव का शत्रु होता प्रतिसारिणी है। पदानुसारिणी बुद्धि का एक प्रकार । गुरु के उपदेश से आदि, आसग्गीवे". जरासिंधू॥ मध्य अथवा अंत के एक बीजपद को ग्रहण करके अधस्तन त्रिपृष्ठादीनां नवानामपि वासुदेवानां यथाक्रमं प्रतिशत्रवः, (पीछे वाले) ग्रंथ को जानने वाली योगज विभूति। तथा सर्वेऽपि चक्रयोधिनः, सर्वेऽपि च हताः स्वचक्रैः""। आदिअवसाणमझे गुरूवदेसेण एक्कबीजपद। (प्रसा १२१३ वृ प ३४९) । गेण्हिय हेट्ठिमगंथं बुज्झदि जा सा च पडिसारी॥ (त्रिप्र ४.९८२) प्रतिषेध वस्तु का अविद्यमान अंश। प्रतिसेवना प्रतिषेधोऽसदंशः। (प्रनत ३.५७) (व्यभा ४१ वृ) (द्र प्रतिषेवणा) प्रतिषेवणा प्राणातिपात आदि का आसेवन करना। प्रतिसेवी पुलाक प्रतिषेवणा प्राणातिपाताद्यासेवनम्। पुलाक निर्ग्रन्थ का एक प्रकार । ज्ञान आदि की विराधना (स्था १०.६९ वृ प ४५९) करने वाला। (भग २५.२७८ वृ) प्रतिषेवणा कुशील प्रतिहतपापकर्मा कुशील निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जो इन्द्रियजयी वह मुनि, जो अपने तपोबल से अतीत में अर्जित कर्मों का नहीं है और उत्तर गुणों की विराधना करता है। प्रतिहनन अथवा विशोधन कर चुका है। पडिहयपावकम्मो नाम नाणावरणादीणि अट्ठ कम्माण पत्तेयं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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