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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश प्रज्ञा परीषह परीषह का एक प्रकार । १. ज्ञान का प्रकर्ष न होने पर उत्पन्न खिन्नता, जो मुनि के लिए सहनीय होती है । से नूणं मए पुव्वं कम्माणाणफला कडा । जेणाहं नाभिजाणामि पुट्ठो केणइ कण्हुई | अह पच्छा उइज्जति कम्माणाणफला कडा । एवमस्सासि अप्पाणं नच्चा कम्मविवागयं ॥ ( उ २.४०, ४१ ) २. 'मैं आगमविशारद हूं, सर्वशास्त्रनिपुण हूं, मेरे समक्ष अपर जन नगण्य हैं' – इस रूप में प्रज्ञा का मद करना, जो मुनि द्वारा निरसनीय है । अङ्ग-पूर्व-प्रकीर्णकविशारदस्य शब्दन्यायाध्यात्मनिपुणस्य मम पुरस्तादितरे भास्करप्रभाभिभूतखद्योतोद्योतवन्नितरां नावभासन्त इति विज्ञानमदनिरास: प्रज्ञापरीषहजयः प्रत्येतव्यः । (ससि ९.९ ) प्रज्ञाश्रवण बुद्ध ऋद्धि का एक प्रकार । श्रुतज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय कर्म के प्रकृष्ट विलय ( क्षयोपशम) से प्राप्त लब्धि, जिसके द्वारा विशिष्ट अध्ययन के बिना ही सूक्ष्म तत्त्वों का निरूपण किया जाता I वीरियंतरायाए । पगडीए सुदणाणावरणाए उक्कस्सखउवसमे उप्पज्जइ पण्णसमणद्धी ॥ पण्णासवणद्धिजुदो चोद्दसपुव्वीसु विसयसुहुमत्तं । सव्वं हि सुदं जादि अकअज्झअणो विणियमेण ॥ (त्रि ४.१०१७, १०१८) अतिसूक्ष्मार्थतत्त्वगहने चतुर्दशपूर्विण एव विषयेऽनुयुक्ते अनधीतद्वादशाङ्गचतुर्दशपूर्वस्य प्रकृष्टश्रुतावरणवीर्यान्तराय -क्षयोपशमाविर्भूताऽसाधारणप्रज्ञाशक्तिलाभान्निः संशयं निरूपणं प्रज्ञाश्रवणत्वम् । ( तवा ३.३६) (द्र प्राज्ञ श्रमण ) प्रणिधान १. . निश्चित आलम्बन में शरीर, वाणी और मन को स्थापित करने की क्रिया । 'पणिहाणे' त्ति प्रकर्षेण नियते आलम्बने धानं - धरणं मनः(भग १८.१२५ वृ) प्रभृतेरिति प्रणिधानम् । २. एकाग्रता Jain Education International प्रणिहितिः प्रणिधानम् - एकाग्रता । (स्था ३.९६ वृप ११५ ) ३. समाधि । .....अवधानसमाधानप्रणिधानानि तु समाधौ स्युः । १८७ (अचि ६.१४) ४. चित्त की निर्मलता । प्रणिधि योगसंग्रह का एक प्रकार, जिसमें राग-द्वेषमुक्त भाव में चित्त को एकाग्र करने का अभ्यास किया जाता है। (सम ३२.१.३) प्रणीतआहारविरतिसमितियोग आहारपणीय- निद्धभोयण-विवज्जए संजते एवं पणीयाहारविरतिसमितिजोगेण भाविओ भवति अंतरप्पा | ( प्रश्न ९.११ ) (द्र प्रणीत आहारविवर्जन) प्रणीत आहारविवर्जन ब्रह्मचर्य महाव्रत की एक भावना। मांस, मेद आदि का उपचय करने वाले भोजन का वर्जन करना । प्रणीतो - वृष्यः स्निग्धमधुरादिरसः क्षीरदधिनवनीतसर्पिर्गुडतैलपिशितमद्यापूपादिस्तदभ्यवहारो -- भोजनं ततो मेदोमज्जाशुक्राद्युपचयस्तस्मादपि मोहोद्भवः, अतः सतताभ्यासतः प्रणीतरसाभ्यवहारो वर्जनीय इत्यात्मानं भावयेद् ब्रह्मचर्यमिच्छन्निति । (तभा ७.३ वृ) प्रतर तप वह तप, जो श्रेणीतप के सब क्रम-प्रकारों के मिलन से होता है। श्रेणी तप के पदों को उतने ही पदों से गुणा करने पर प्रतर तप प्राप्त होता है। चार पदों की श्रेणी को चार से गुणा करने पर सोलह पदात्मक प्रतर तप होता है। श्रेणिरेव श्रेण्या गुणिता प्रतर उच्यते, तदुपलक्षितं तपः ( उ ३०.१० शावृ प ६०१ ) प्रतरतपः । (द्र श्रेणी तप, घन तप ) For Private & Personal Use Only प्रतिक्रमण आवश्यक सूत्र का चौथा अध्ययन, जो आत्मालोचन का प्रयोग है, जिसके द्वारा अतीत के दोषों की निवृत्ति की जाती है। प्रतिक्रमण (षडावश्यक) का प्रयोग सूर्योदय से पूर्व www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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