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________________ १७८ पारिग्रहिकी क्रिया १. क्रिया का एक प्रकार । परिग्रह, संग्रह में प्रवृत्ति । २. परिग्रह की सुरक्षा के लिए होने वाला प्रयत्न । परिग्रहाविनाशार्था पारिग्राहिकी। (स्था २.१४) पारिणामिक भाव भाव का एक प्रकार। अपने स्वरूप का त्याग किए बिना परिणमन से होने वाली जीव और पुद्गल की अवस्था । अपरिचत्तसरूवमेव तथा परिणमति सा किरिया परिणामितो भावो भण्णति । (अनु २७१ चू पृ ४४) पारिणामिकी बुद्धि अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान का एक प्रकार । अवस्था के साथ अनुभव से उत्पन्न होने वाली बुद्धि । अनुमान हेतु और दृष्टान्त से साध्य को सिद्ध करने वाली, वयोविपाक से परिपक्व होने वाली, अभ्युदय और निःश्रेयस फल वाली बुद्धि । अणुमाण - उ-दिवंत-साहिया, वयविवागपरिणामा । हियनिस्सेयसफलवई, बुद्धी परिणामिया नाम ॥ ( नन्दी ३८.१० ) (तवा ६.५.११) पारितापनिकी क्रिया दूसरे को परितापन (ताड़न आदि दुःख) देने वाली क्रिया । दुःखोत्पत्तितन्त्रत्वात् पारितापनिकी क्रिया । (तवा ६.५.८) परितापनं - ताडनादिदुःखविशेषलक्षणं तेन निर्वृत्ता पारितापनिकी । (स्था २.८ वृ प ३८ ) पारिषद्य पारिषद वे देव, जो इन्द्र की परिषद् के सदस्य होते हैं । वे मित्रसदृश और पीठमर्द - नृत्य कला के प्रशिक्षक होते हैं । वयस्यपीठमर्दसदृशाः परिषदि भवाः पारिषदाः । (ससि ४.४ ) (द्र पारिषद) पारिहारिक Jain (द परिहारिक )tional (तभा ४.४ वृ) (व्य १.१९ ) जैन पारिभाषिक शब्दकोश पारिहारिक कुल १. वह कुल (घर), जहां आचार्य, ग्लान, बाल, वृद्ध और अतिथि मुनियों के योग्य आहार आदि की उपलब्धि होती है I गुरु-गिलाण - बाल - वुड्ढ-आदेसमादियाण जत्थ पाउग्गं लभति ते परिहारियकुले । (निभा २७७७ चू) २. वह कुल, जो जाति, कर्म, शिल्प आदि की दृष्टि से जुगुप्सित या अभोज्य है । गुरु - ग्लान- बालादीनां यत्र प्रायोग्यं लभ्यते तानि कुलाि द्वा परिहारिकाणि नाम कुत्सितानि जात्यादिजुगुप्सितानि । (बृभा २६९६ वृ) (द्र स्थापना कुल ) पार्थिवी धारणा पिण्डस्थ ध्यान का पहला प्रकार । साधक आसनस्थित होकर अपने आधारभूत स्थान - समुद्र, पर्वत आदि की विशालता और विशदता का अनुभव करता है, सर्वशक्तिसम्पन्न वीतरागस्वरूप की अनुभूति करता है, अनुभूति को पुष्ट करते-करते उसी में लीन हो जाता है। तिर्यग्लोकसमं ध्यायेत् क्षीराब्धिं तत्र चाम्बुजम् । सहस्रपत्रं स्वर्णाभं जम्बूद्वीपसमं स्मरेत् ॥ श्वेतसिंहासनासीनं कर्मनिर्मूलनोद्यतम्। आत्मानं चिन्तयेत्तत्र पार्थिवी धारणेत्यसौ ॥ (योशा ७.१०,१२) स्वाधारभूतानां स्थानानां बृहदाकारस्य वैशद्यस्य च विमर्शः ॥ निजात्मन: सर्वसामर्थ्योद्भावनं पार्थिवी ॥ (मनो ४.१७, १८) तत्रस्थस्य पार्श्वतः अन्तगत अवधिज्ञान अंतगत आनुगामिक अवधिज्ञान का एक प्रकार । वह अवधिज्ञान, जो शरीर के पार्श्ववर्ती - दाएं अथवा बाएं भाग से उत्पन्न होता है। पासतो अंतगयं णाम वामतो दाहिणतो व त्ति । For Private & Personal Use Only (आवचू १ पृ५६) पार्श्वस्थ शिथिलाचारी श्रमण का एक प्रकार । १. युक्तियों से बाहर ठहरने वाला - अयौक्तिक बात को मानने वाला । www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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