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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश १७७ पान पापकर्मोपदेश आहार का एक प्रकार। (स्था ४.२८८) अनर्थदण्ड का एक प्रकार। केशवाणिज्य, तिर्यग्वाणिज्य, (द्र आहार, पानक) वध, आरंभ (कृषि) आदि के विषय में सावध कथन करना। पापकर्मोपदेश: क्षेत्राणि कृषत इत्यादिरूपः। पानक (उपा १.३० वृ पृ९) द्राक्षा आदि द्रव्यों से निष्पन्न जल, काजी आदि। मुद्दितापाणगाती पाणं। (द ५.४७ अचू पृ८६) पापप्रकृति 'पानकं' च आरनालादि। (द ५.४७ हावृ प १६३) (कग्र ५.१७) (द्र अशुभ प्रकृति) पानपुण्य पुण्य का एक प्रकार। पात्र-संयमी को जल देने से होने पापस्थान वाला पुण्य प्रकृति का बंध। (स्था ९.२५ वृ प ४२८) । १. वह कर्म, जिसके उदय से जीव अशुभ प्रवृत्ति में व्यापृत (द्र अन्नपुण्य) होता है। (झीच २२.१) २. वह प्रवृत्ति, जो अशुभ कर्म के बंध का हेतु बनती है। पानैषणा पापहेतूनि स्थानकानि पापस्थानकानि। (प्रसावृप ३९८) पानक की एषणा (ग्रहण) से संबद्ध संकल्प-विशेष, जैसेसंसृष्टा, असंसृष्टा आदि। पारणक सत्त पाणेसणाआओ पण्णत्ताओ। (स्था ७.९) १. तपस्या का समापन। (द्र पिण्डैषणा) २. किसी ग्रन्थ के अध्ययन का समापन । पारणा च-तपसः श्रुतस्कन्धादिश्रुतस्य वा पारगमनम्। पाप (प्रश्नवृप १२९) नौ तत्त्वों में एक तत्त्व । अशुभ कर्मपुद्गल। यत्पार्यते-पर्यन्तः क्रियते गृहीतनियममस्यानेनेतिपारणं तदेव अशुभं कर्म पापम्। (जैसिदी ४.१४) पारणकं, भोजनम्। (उशावृ प ३६९) ""उपचारात् तद्हेतवोऽवि तत्शब्दवाच्याः, ततश्च तद् अष्टादशविधम्। (जैसिदी ४.१४ ) पारणा (द्र पापकर्म) (प्रश्न वृ१२९) (द्र पारणक) पाप आयतन वह प्रवृत्ति, जो पाप (अशभ कर्म प्रकति) का आयतन- पारमार्थिक प्रत्यक्ष बंध का हेतु है, जैसे-प्राणातिपात आदि। वह प्रत्यक्ष ज्ञान, जो ज्ञान उत्पत्ति के समय बाह्य निमित्त से पापस्य-अशुभप्रकृतिरूपस्यायतनानि-बन्धहेतवः। निरपेक्ष होता है, केवल आत्मा से उत्पन्न होता है। (स्था ९.२६ वृ प ४२८) पारमार्थिकं पुनरुत्पत्तावात्ममात्रापेक्षम्। (प्रनत २.१८) पापकर्म पाराञ्चिक प्रायश्चित्त वह आचरण, जिसके द्वारा जीव का अध:पतन होता है, प्रायश्चित्त का एक प्रकार। भर्त्सना एवं अवहेलनापूर्वक जैसे-प्राणातिपात आदि। पुनर्दीक्षा। पापं कर्म अध:पतनकारित्वात् पापं, क्रियत इति कर्म, तच्चा यस्मिन् प्रतिषेविते लिङ्गक्षेत्रकालतपोभिः पाराञ्चिको ष्टादशविधं प्राणातिपातमृषावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहक्रोध बहिर्भूतः क्रियते तत्पाराञ्चिकं, तदहमिति । मानमायालोभप्रेमद्वेषकलहाभ्याख्यानपैशुन्यपरपरिवादरत्यर तिमायामृषामिथ्यादर्शनशल्याख्यमिति, एवमेतत् पापमष्टा (स्था १०.७३ वृ प ४६१) दशभेदम्। (आवृ प७२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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