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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश १४१ द्योतन्ते वा भास्वरशरीरत्वादस्थिमांसासूक्प्रबन्ध-रहितत्वात् सर्वाङ्गोपाङ्गसुन्दरत्वाच्च देवाः।। अथवा विना विद्यामन्त्राञ्जनादिभिः पूर्वकृततपोऽपेक्षजन्मलाभसमनन्तरमेवाकाशगतिभाजो देवाः। (तभा ४.१ वृ) देवगतिनामकर्मोदये सति द्युत्याद्यर्थावरोधाद् देवाः। (तवा ४.१) २. वैमानिक देव अथवा ज्योतिष्क और वैमानिक देव। (द्र देवेन्द्र) ३. वह प्राणी, जो दिव्य-क्रीड़ाशील है अथवा स्तुत्य है, आराध्य है, जैसे-अर्हत्, चक्रवर्ती आदि। दीव्यन्ति-क्रीडां कुर्वन्ति दीव्यन्ते वा-स्तूयन्ते वाऽऽराध्यतयेति देवाः। (भग १२.१६३ वृ) पंचविहा देवा पण्णत्ता, तं जहा-भवियदव्वदेवा, णरदेवा, धम्मदेवा, देवातिदेवा, भावदेवा। (स्था ५.५३) । ४. वह पुरुष, जो सर्वज्ञ, वीतराग, यथास्थित अर्थ का प्रवक्ता, अर्हत् और परम ऐश्वर्यशाली होता है। सर्वज्ञो जितरागादिदोषस्त्रैलोक्यपूजितः। यथास्थितार्थवादी च देवोऽर्हन परमेश्वरः॥ (योशा २.४) महाप्रातिहार्य का एक प्रकार। तीर्थंकर के समवसरण में धर्मोपदेश के समय देवों के द्वारा दन्दभि का वादन होता है। 'दुंदुहि' त्ति देववाद्यविशेषः। (भग ५.६४ वृ) तारतरविस्फारभाङ्कारभरितभुवनोदरविवरा भेरयोमहाढक्काः क्रियन्ते। (प्रसावृ प १०६) देवनिकाय चतुर्विध देव-समुदाय। देवाश्चतुर्निकायाः। (तसू ४.१) चत्वारो निकाया-वासा येषां ते चत्वारो वा संघास्ते चतुर्निकायाः।""स्वधर्मापेक्षजातिविशेषसामर्थ्यान्निकायाः। (तभा ४.१ वृ पृ २७३) (द्र देवलोक) देवलोक १. ऊर्ध्वलोक, स्वर्ग, जहां वैमानिक देवों के आलय हैं। (उ ३.३ शावृ प १८२) २. चतुर्विध देवनिकाय-भवनवासी, वानमंतर, ज्यौतिषिक और वैमानिक। चउव्विहा देवलोगा पण्णत्ता, तं जहा-भवणवासी-वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियभेदेणं। (भग ५.२५८) देवकुरु महाविदेह का वह क्षेत्र (अकर्मभूमि), जो मंदरपर्वत से दक्षिण में निषध वर्षधर पर्वत से उत्तर में, विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत से पूर्व में, सौमनस वक्षस्कार पर्वत से पश्चिम में स्थित देवातिदेव ..."देवातिदेवा""जे इमे अरहंता भगवंतो उप्पण्णनाणदंसणधरा अरहा जिणा केवली तीयपच्चुप्पन्नमणागयवियाणया सव्वण्णू सव्वदरिसी। (भग १२.१६७) (द्र देवाधिदेव) मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं, णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं, विजुप्पहवक्खारपव्वयस्स परत्थिमेणं, सोम- णसवक्खार-पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, एत्थ णं देवकुरा णामं कुरा पण्णत्ता। (जं ४.२०५) मन्दरनिषधयोर्दक्षिणोत्तरा: सौमनसविद्युत्प्रभयोर्मध्ये देवकुरवः। (तभा २.५२ वृ) (द्र उत्तरकुरु) देवगति गतिनाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव देव पर्याय का वेदन करता है। (द्र नरकगति) देवदुन्दुभि देवाधिदेव अर्हत् भगवान्, तीर्थंकर, जो देवों के भी देव होते हैं। वे चौबीस हैं-ऋषभ, अजित आदि। 'देवाइदेव' त्ति देवान् शेषानतिक्रान्ताः पारमार्थिकदेवत्वयोगाद् देवा देवातिदेवाः, 'देवाहिदेव' त्ति क्वचिद् दृश्यते तत्र च देवानामधिका: पारमार्थिकदेवत्वयोगाद् देवा देवाधिदेवाः । (भग १२.१६३ वृ) चउव्वीसं देवाहिदेवा पण्णत्ता, तं जहा-उसभे"वद्धमाणे। (सम २४.१) (द्र देव) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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