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________________ १४० जैन पारिभाषिक शब्दकोश दूषण दूतीपिण्ड प्रवृत्ति। उत्पादन दोष का एक प्रकार। दूती की तरह संवाद बताकर । दृष्टेर्जाता दृष्टिजा अथवा दृष्टं-दर्शनं वस्तु वा निमित्ततया भिक्षा लेना। यस्यामस्ति सा दृष्टिका-दर्शनार्थं या गतिक्रिया, दर्शनाद मिथः सन्देशकथनं दूतीत्वम्, तत् कुर्वतो भिक्षार्थं दूतीपिण्डः। वा यत्कर्मोदेति सा दृष्टिका वा। (स्था २.२० वृ प ३९) (योशा १.३८ वृ पृ १३५) दृष्टिराग दूती परस्परसंदिष्टार्थकथिका तदभावस्तेन यल्लभ्यते स राग का एक प्रकार। अपने दर्शन-सिद्धांत के प्रति होने दूतीपिण्डः। (प्रसा ५६६ वृ) वाला वह अनुराग, जो अप्रशस्त है, जिनमत से बाह्य है वीतरागमार्ग से विमुख है। साधन के दोषों (असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक-इन त्रयाणां त्रिषष्ट्यधिकानां प्रावादुकशतानामात्मीयात्मीयदर्शहेत्वाभासत्रयी) को प्रकट करना। नानुरागो दृष्टिरागः। (आवनि ९१८ हावृ पृ २५८,२५९) साधनदोषोद्भावनं दूषणम्। (प्रमी २.१.२८) (द्र राग) दृष्टिवाद दृष्टसाधर्म्यवत् अनुमान द्वादशाङ्ग श्रुत का बारहवां अङ्ग, जिसमें सर्वभावों की प्ररूपणा पूर्वदृष्ट पदार्थ की समानधर्मिता के आधार पर होने वाला की गई है। ज्ञातव्य का अनुमान, जैसे—पूर्वदृष्ट एक रुपये के सिक्के के दिट्ठिवाए णं सव्वभावपरूवणा आघविज्जइ। से समासओ आधार पर उस प्रकार के दूसरे सिक्कों को देखकर एक रुपये पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-परिकम्मे, सुत्ताई, पुव्वगए, का अनुमान लगाना। अणुओगे, चूलिया॥ (नन्दी ९२) दृष्टोऽर्थो धर्मसमानतया अनुमितो दृष्टसाधर्म्यानुमानं नाम प्रमाणं भवति। (अनु ५१९ चू पृ ७५) दृष्टिवादोपदेश संज्ञा संज्ञिश्रुत का एक प्रकार। दृष्टि के आधार पर होने वाला दृष्टान्त संज्ञान-सम्यग्दृष्टि वाला जीव संज्ञी और मिथ्यादृष्टि वाला व्याप्ति की प्रयोगभूमि, जैसे-जहां-जहां धूम, वहां-वहां जीव असंज्ञी। अग्नि, जैसे-रसोईघर। तं खयोवसमियभावत्थं सम्मद्दिष्टुिं सणिण पडुच्च मिच्छाद्दिट्ठी प्रतिबन्धप्रतिपत्तेरास्पदं दृष्टान्तः। (प्रनत ३.४३) असण्णी भणितो। (नन्दी ६१ चू पृ ४७) दृष्टान्तपरिणामक दृष्टिविपर्यासिका दण्ड परिणामक शिष्य का एक प्रकार, जो हेतुगम्य परोक्ष पदार्थ क्रिया का एक प्रकार। दृष्टि की विपरीतता (मति-विभ्रम) को प्रत्यक्ष प्रसिद्ध दृष्टांत से बुद्धि में आरोपित करता है, उस से होने वाली हिंसात्मक प्रवृत्ति । पर श्रद्धा करता है। रज्ज्वामिव सर्पबुद्धिस्तया दण्डो दृष्टिविपर्यासदण्डः। परोक्खं हेउगं अत्थं, पच्चक्खेण उ साहयं। (सूत्र २.२.२ वृ प ४५) जिणेहिं एस अक्खातो, दिटुंतपरिणामगो॥ (व्यभा ४६०९) देव १. वह प्राणी, जो अस्थि, मांस और रक्त की रचना से रहित, दृष्टि भास्वर शरीर वाला तथा सब अङ्गोपाङ्ग से सुन्दर होने के दर्शनमोह के उदय या विलय से होने वाला आत्मपरिणाम। कारण दिव्य रूप वाला होता है। जो विद्या, मंत्र आदि की (द्र दर्शन) सहायता के बिना जन्म के अनन्तर ही आकाशगमन की दृष्टिजा क्रिया शक्ति वाला होता है और जो देवगति नामकर्म के उदय से क्रिया का एक प्रकार। देखने के लिए होने वाली रागात्मक उत्पन्न होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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