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________________ १३४ जैन पारिभाषिक शब्दकोश दण्ड दण्डायतिकः-प्रसारितदेहः। (स्था ७.४९ ७ प ३७८) १. वह प्रवृत्ति, जिससे आत्मा दण्डित होती है, जो चारित्र दत्ति का अपहार करती है और जिससे दुर्गति प्राप्त होती है। वह भिक्षा, जो हाथ या पात्र से अव्यवच्छिन्न धारा से दी दण्ड्यते-चारित्रैश्वर्यापहारतोऽसारीक्रियते एभिरात्मेति जाती है। दण्डाः । _(सम १.६ वृ प ८) तत्र करस्थालादिभ्योऽव्यवच्छिन्नधारया या पतति भिक्षा २. केवली-समुद्घात के पहले और आठवें समय में अपने सा दत्तिरभिधीयते। (प्रसा १९७ वृ प ४५) शरीर की चौड़ाई के अनुसार ऊपर और नीचे दोनों ओर लोकान्त तक फैले हुए आत्मप्रदेशों की रचना। दन्तवन पढमसमये 'दंडं करेइ'त्ति प्रथमसमय एव स्वदेहविष्कम्भ- अनाचार का एक प्रकार । दांतों को दतौन से घिसना, जो मुनि मूर्ध्वमधश्चायतमुभयतोऽपिलोकान्तगामिनं जीवप्रदेशसंघातं के लिए अनाचरणीय है। दण्डस्थानीयं केवली ज्ञानाभोगतः करोति। दन्ताः पूयन्ते-पवित्राः क्रियन्ते येन काष्ठखण्डेन तद्दन्त(औपवृ पृ २०८, २०९) पावनम्। (प्रसा २१० वृ प ५१) (द्र केवलिसमुद्घात) दन्तवाणिज्य दण्डक कर्मादान का एक प्रकार । हाथी-दांत, सींग, चमड़े आदि का समान जाति वाले जीवों का वर्गीकरण। ये चौबीस हैं। क्रय-विक्रय। (स्था १.२१३) 'दंतवाणिज्जे'त्तिदन्तानां-हस्तिविषाणानाम् उपलक्षणत्वादण्डनीति देषां चर्मचामरपूतिकेशादीनां वाणिज्यं-क्रयविक्रयो दन्तदोष के अनुसार दण्ड की व्यवस्था करना। वाणिज्यम्। (भग ८.२४२ वृ) दण्डनं दण्डः-अपराधिनामनुशासनं, तत्र तस्य वा स एव दया वा नीति:-नयो दण्डनीतिः। (स्था ७.६६ ७ प ३७८) १. जगत् के सब जीवों की रक्षा करना, प्रयत्नपूर्वक वध न दण्डरत्न करना। सर्वजगज्जीवरक्षणरूपा या दया"। (प्रश्न ६.३ प १०९) चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में से एक रत्न, जो शत्रुओं को नष्ट २. पापमय आचरणों से अपनी या दसरे की आत्मा को करने में समर्थ होता है, दिव्य तथा अप्रतिहत होता है। वह बचाना। स्कन्धावार के लिए विषम भूमि को सम करता है और चक्रवर्ती के ईप्सित मनोरथों को पूरा करता है। यह भूमि के पापाचरणादात्मरक्षा दया। (जैसिदी ९.१) भीतर हजार योजन तक प्रवेश कर सकता है। दर्पप्रतिषेवणा दण्डरलं रत्नमयपञ्चलताकं वज्रसारमयं सर्वशत्रुसैन्य दर्प (उद्धतभाव) से, राग-द्वेष की प्रेरणा से किया जाने विनाशकारकं, चक्रवर्तिनः स्कन्धावारं विषमोन्नतविभागेषु वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन, दोषाचरण। समत्वकारि शान्तिकरं चक्रवर्तिनो हितेप्सितमनोरथपूरकं दप्पो पुण वग्गणाईओ इति वचनात्। दिव्यमप्रतिहतं प्रयत्नविशेषतश्च व्यापार्यमाणं योजन ..."आगमप्रतिषिद्धप्राणातिपाताद्यासेवा या सा दर्पप्रतिषेसहस्रमप्यधः प्रविशति। (प्रसा १२१४ वृ प ३५०,३५१) वणा। (स्था १०.६९ वृ प ४६०) दण्डायतिक रागद्वेषाभ्याम् अनुगता-सहिता या प्रतिसेवना सा दर्पिका। कायक्लेश का एक प्रकार । दोनों पैरों को परस्पर सटाकर, (बृभा ४९४३ वृ) दोनों हाथों को पैरों से सटाकर दण्ड की तरह सीधा लेटने दर्पिका वाला। (बृभा ४९४३ वृ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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