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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश त्रिचक्षुः गति करने की शक्ति पैदा होती है। यह द्वीन्द्रिय आदि में त्रिविद्य जन्म लेने का निमित्त बनती है। पूर्वजन्म, जन्म-मरण और आश्रवक्षय-इन तीन विद्याओं त्रसन्ति-उष्णाद्यभितप्ताः सन्तो विवक्षितस्थानाद्विजन्ते को जानने वाला। गच्छन्ति च छायाद्यासेवनार्थं स्थानान्तरमिति।। पूर्वजन्मज्ञानं जन्ममरणयोर्ज्ञानं आस्त्रवक्षयज्ञानं चेति तिस्त्रो त्रसा-द्वीन्द्रियादयस्तत्पर्यायपरिणतिवेद्यं नामकर्माणि विद्याः। एतासां विद्यानां ज्ञाता त्रिविद्यो भवति। सनाम। (प्रज्ञा २३.३८ वृप ४७४) (आभा ३.२८) त्रायस्त्रिशक त्रिस्थानपतित (त्रिस्थानिक) वेह देव, जो मंत्रीस्थानीय और पुरोहितस्थानीय है। तुलनात्मक न्यूनता और अधिकता को बताने वाले तीन त्रायस्त्रिंशा मंत्रिपुरोहितस्थानीयाः। (तभा ४.४) गणितीय मान। जैसे-असंख्येयभागहीन, संख्येयभागहीन, संख्येयगुणहीन; अथवा असंख्येयभागअधिक, संख्येयभागत्रायी अधिक, संख्येयगुणअधिक। (प्रज्ञा ५.१०) संसार के महान् भय से आत्मा की रक्षा करने वाला अथवा (द्र षट्स्थानपतित) वीतरागतुल्य मुनि। तायते-त्रायते वा रक्षति दुर्गतेरात्मानं एकेन्द्रियादिप्राणिनो त्रीन्द्रिय वाऽवश्यमिति तायी त्रायी वा। (उ८.४ शावृ प २९१) स्पर्शन, रसन और प्राण-इन तीन इन्द्रियों वाला प्राणी, जैसे-कुन्थु, पिपीलिका, जूं आदि। स्पर्शनरसनघ्राणेन्द्रियत्रययुक्ताः कुन्थुपिपीलिकायूकामत्कुवह तथारूप श्रमण, जो अतिश ज्ञान का धारक णादयस्त्रीन्द्रियाः। चक्षुरिन्द्रिय, परमश्रुत और परम अवधि-इन तीन चक्षुओं __ (बृद्रसं ११ वृ पृ २३) वाला होता है। त्रैराशिकवाद ""तहारूवे समणे वा माहणे वा उप्पण्णणाणदंसणधरे प्रवचननिह्नव का छठा प्रकार। यथार्थ का अपलाप करने तिचक्खु त्ति वत्तव्वं सिया। वाला दृष्टिकोण, जिसके अनुसार जीव, अजीव तथा नोजीव"""त्रिचक्षुः, चक्षुरिन्द्रियपरमतावधिभिरिति वक्तव्यं ये तीन राशियां हैं। (स्था ३.४९९ वृ प १६१) जीवाजीवनोजीवभेदास्त्रयो राशयः समाहृतास्त्रिराशिः। त्रिपदी तत्प्रयोजनं येषां ते त्रैराशिकाः, राशित्रयख्यापका इत्यर्थः । उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-इन तीन पदों की युति, जिसका (स्था ७.१४० वृ प ४१३) तीर्थंकर व्याकरण करते हैं और जिसके आधार पर गणधर द्वादशांग की रचना करते हैं। उप्पण्णे इ वा, विगमे इ वा धुवे इ वा, एता एव तिम्रो दंशमशक परीषह निषद्याः, आसामेव सकाशाद् गणभृताम् 'उत्पाद- परीषह का एक प्रकार। डांस, मच्छर आदि जन्तुओं के व्ययधौव्ययुक्तं सदि' ति प्रतीतिरुपजायते, अन्यथा उपद्रव से उत्पन्न वेदना, जो मुनि के द्वारा समभावपूर्वक सत्ताऽयोगात्, ततश्च ते पूर्वभवभावितमतयो द्वादशांग- सहनीय है। मुपरचयन्ति। (आवनि ७३५ हावृ पृ १८५) पुट्ठो य दंसमसएहिं समरेव महामुणी। तीहिं निसेज्जाहिं चोद्दसपुव्वाणि उप्पादिताणि। किं च वागरेति नागो संगामसीसे वा सूरो अभिहणे परं॥ भगवं? उप्पन्ने विगते धवे-एताओ तिन्नि निसेज्जाओ। नयंतसेन वारेजाम पिन पोस। उप्पन्ने त्ति जे उप्पन्निमा भावा ते उवागच्छंति। विगते त्ति ते उवेहे न हणे पाणे भुंजंते मंससोणियं॥ विगतिस्सभावा ते विगच्छंति। धुवा जे अविणासधम्मिणो। (उ २.१०,११) (आवनि ७३५ चू पृ ३७०) (द्र मातृकापद) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org स्यात्। Jain Educatio International
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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