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________________ १२८ जैन पारिभाषिक शब्दकोश तद्व्यतिरिक्तमिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया श्रमण धर्म अथवा उत्तम धर्म का एक प्रकार। कर्मक्षय और मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया का एक प्रकार। सद्भूत पदार्थ के आत्मशुद्धि के लिए किया जाने वाला तप। अस्तित्व का अस्वीकार, जैसे आत्मा नहीं है। कर्मक्षयार्थं तप्यत इति तपः। (तवा ९.६) ऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनाद् व्यतिरिक्तं मिथ्यादर्शनं-नास्त्ये तपोविनीत वात्मेत्यादिमतरूपं प्रत्ययो यस्याः सा तथा। जिसकी मति तपविनय में निश्चित होती है, जो तपस्या से (स्था २.१६ वृ प ३९) अज्ञान को दूर करता है तथा आत्मा को मोक्ष के निकट ले तनुवात जाता है। वह वायु, जो तरल और आकाश-प्रतिष्ठित है। अवणेति तवेण तमं, उवणेति य मोक्खमग्गमप्पाणं। तनुवातवलयमाकाशप्रतिष्ठितम्। (तवा ३.१) (तवा ३.१) । तवविणयनिच्छितमती, तवोविणीओ हवति तम्हा॥ (द्र घनवात) (दनि २९५) तन्दुलप्रक्रीर्णक तपःप्रायश्चित्त उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार । इस अध्ययन में गर्भ, मानव मूलगुण-उत्तरगुण में अतिचार होने पर उसकी शुद्धि के की शरीर-रचना, शतवर्ष की आयु के दस विभाग, उनमें लिए किया जाने वाला तप। इसका कालमान जघन्य पांच होने वाली शारीरिक स्थितियां, आहार आदि मानव-जीवन दिन-रात तथा उत्कृष्ट छह मास है। के विविध पक्षों पर विमर्श किया गया है। (नन्दी ७७) तवो मूलुत्तरगुणातियारे पंचरातिंदियाति छम्मासावसाण मणेकधा। (आवचू २ पृ २४६) तन्मन निर्धारित ज्ञेय अथवा लक्ष्य में लगा हुआ मन । तप्ततपस्वी तस्य-देवदत्तादेस्तस्मिन् वा घटादौ मनस्तन्मनः, ततो- वह मुनि, जिसके द्वारा किया हुआ शुष्क और अल्प आहार देवदत्ताद् अन्यस्य-यज्ञदत्तादेघटापेक्षया पटादौ वा मन- तत्काल परिणत हो जाता है, वह मल और रक्त में परिणत स्तदन्यमनः, अविवक्षितसम्बन्धितविशेषं तुमनोमानं नोअमन नहीं होता। इति। (स्था ३.३५७ वृप १३२) तप्तायसकटाहपतितजलकणवदाशुशुष्काल्पाहारतया मलरु(द्र तदन्यमन, नोअमन) धिरादिभावपरिणामविरहिताभ्यवहाराः तप्ततपसः। (तवा ३.३६) तप जो आठ प्रकार की कर्मग्रन्थि अथवा कर्मशरीर को तपाता है, तप्तानिवृतभोजित्व नष्ट करता है तथा जो पूर्वगृहीत कर्म के क्षय का हेतु है। मुनि के लिए अनाचार का एक प्रकार। अर्द्धपक्व सजीव तवो णाम तावयति अट्ठविहं कम्मगंठिं नासेति त्ति वुत्तं वस्तु का उपभोग करना। भवइ। (द ८.६२ जिचू पृ १५) जावणातीवअगणिपरिणतं तं तत्तअपरिणिव्वडं। पूर्वगृहीतकर्मक्षयहेतुश्च तपः। (ओनिवृ प १२) (द ३.६ अचू पृ ६१) तप आचार तमःप्रभा अनशन आदि बारह प्रकार की तपस्याओं में कुशल तथा नरक की छठी पृथ्वी (मघा) का गोत्र, जहां कृष्ण अंधकार अग्लान रहने की प्रवृत्ति। (देखें चित्र पृ ३४६) बारसविहम्मि वि तवे सब्भिंतर-बाहिरे जि कृष्णतमो इवाभाति तमःप्रभा। (अनु १८१ चूपृ ३५) अगिलाए अणाजीवी णायव्वो सो तवायारो॥ (द्र रत्नप्रभा) (दनि १६०) तमस्काय तपोधर्म अप्कायिक जीवों और पुद्गलों से निर्मित अंधकार का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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