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________________ जेन पारिभाषिक शब्दकोश मच्छुव्वत्तं एक्कं वंदितूणं छडुति बितिएण पासेति परियत्तति रेचकावर्तेन। (आवनि १२०८ चू पृ४३) ट टाल वह फल, जिसमें गुठली न पड़ी हो। 'इसमें गुठली नहीं पड़ी है'-ऐसा कहना। यह भाषा मुनि के लिए अनाचीर्ण वाद-दोष का एक प्रकार । वादकाल में क्षुब्ध होकर मौन हो जाना। प्रतिवाद्यादेः सकाशाज्जातः क्षोभान्मुखस्तम्भादिलक्षणो दोषस्तज्जातदोषः। (स्था १०.९४ वृ प ४६७) ततगति प्रस्थान-स्थल और गन्तव्य-स्थल के अंतराल में होने वाली गति। यं ग्रामं सन्निवेशं वा प्रति प्रतिष्ठितो देवदत्तादिस्तं ग्रामादिकं यावदद्यापिन प्राप्नोति तावदन्तरा पथि एकैकस्मिन् पदन्यासे तत्तद्देशान्तरप्राप्तिलक्षणा गतिरस्तीति ततगतिः। (प्रज्ञा १६.२२ वृ प ३२८) तहा फलाई.........टालाई.........नो वए। 'टालानि' अबद्धास्थीनि कोमलानीति। (द ७.३२ हावृ प २१९) तत्प्रतिरूपकव्यवहार स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत का एक अतिचार। असली वस्तु के स्थान पर नकली देना, मिलावट करना। तेन-अधिकृतेन प्रतिरूपकं-सदशं तत्प्रतिरूपकं तस्य विविध-मवहरणं व्यवहार:-प्रक्षेपस्तत्प्रतिरूपकव्यवहारः। (उपा १.३५ वृ पृ १३) टोलगति कृतिकर्म (वन्दना) का एक दोष। १. टिड्डी की तरह फुदक-फुदक कर वन्दना करना। .."टोलो व्व उप्फिडंतो ओसक्कहिसक्कणे कुणइ॥ पश्चाद्गमनं "अभिमुखगमनं ते अवष्वष्कणाभिष्वष्कणे टोलो व्व-तिडवदुत्प्लवमानः करोति यत्र तट्टोलगतिवन्दनकमित्यर्थः। (प्रसा १५७ वृ प ३६) २. ऊंट की भांति उठकर एक-दूसरे के पास जाकर वन्दना करना। टोलगति–टोलो जधा उद्वेत्ता अण्णमण्णस्स मूलं जाति। (आवनि १२०७ चू पृ ४३) ३. ऊंट जैसी गति वाला। अथवा टोलाकृति-अप्रशस्त आकार वाला। टोलगतयः-उष्ट्रादिसमप्रचाराः । पाठान्तरेण टोलाकृतयःअप्रशस्ताकाराः। (भग ७.११९ वृ) तत्त्व वस्तु, जो पारमार्थिक-वास्तविक है। जीवाजीवपुण्यपापासवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षास्तत्त्वम्॥ तत्त्वं पारमार्थिकं वस्तु। (जैसिदी २.१ वृ) तत्त्वमिति"तथ्यं सद्भूतं परमार्थ इत्यर्थः।"जीवादीनामर्थानां या स्वसत्ता सोच्यते। (तभा १.४ वृ) (द्र तथ्य) வ ढड्डरस्वर कृतिकर्म (वन्दना) का एक दोष। उच्च स्वर से वन्दनासूत्र के आलापकों का उच्चारण करते हुए वन्दना करना। ढड्डरसरेण जो पुण सुत्तं घोसेइ ढड्डरं तमिह।" ढरेण-महता शब्देनोच्चारयन्नालापकान् यद् वन्दते ढडूरं तदिहेति। (प्रसा १७३ वृ प ३८) तत्रभू पिण्डस्थ ध्यान का पांचवां प्रकार । पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती और वारुणी-इन धारणाओं के अभ्यास के बाद अपनी आत्मा के शुद्ध स्वरूप का चिन्तन करना। सप्तधातुविनाभूतं पूर्णेन्दुविशदद्युतिम्। सर्वज्ञकल्पमात्मानं शुद्धबुद्धिः स्मरेत् ततः॥ स्वाङ्गगर्भे निराकारं संस्मरेदिति तत्रभूः। साभ्यास इति पिण्डस्थे योगी शिवसुखं भजेत्॥ (योशा ७.२३,२५) तज्जातदोष तत्सेवी आलोचना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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