SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश १२५ मतिः श्रुतं अवधि: मनःपर्यवः केवलञ्च-एतज्ज्ञानपञ्चकं ज्ञानसंज्ञा। (आभा पृ २३) दिसाविचारिणो चेव, पंचहा जोइसालया।। (उ ३६.२०८) ज्ञानाक्षर अक्षर का एक प्रकार। (द्र अक्षर, लब्धिअक्षर) (नन्दीचू पृ४४) ज्ञानाचार श्रुतज्ञान के विकास के लिए किया जाने वाला विनय आदि का आचरण। काले विणये बहुमाने उवधाने तहा अनिण्हवणे। वंजणअत्थतदुभए अट्ठविधो णाणमायारो॥ (निभा ८) ज्ञानावरणीय कर्म वह कर्म, जिससे आत्मा का ज्ञान-विशेष बोध आवृत होता झंझकर १. एक असमाधिस्थान । गण में भेद डालने वाला अथवा गण के मन को पीड़ित करने वाला। (सम २०.१) २. वाचिक कलह करने वाला। (उ २९.४० वृ) झज्झाकरो येन येन गणस्य भेदो भवति तत्तत्करो, येन वा गणस्य मनोदुःखं समुत्पद्यते तद्भावी। (सम. वृ. प. ३७) झंझपुरुष वह व्यक्ति, जो निरंतर कलह करता रहता है. उसके महामोहनीय कर्म का बंध होता है। .."अज्झीणझंझे पुरिसे, महामोहं पकुव्वइ । (सम ३०.१.९) ज्ञायते-परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति ज्ञानं-सामान्यविशेषात्मके झरक वस्तुनि विशेषग्रहणात्मको बोधः, आवियते-आच्छाद्यते १. सूत्र के अर्थ का मन से ध्यान करने वाला मुनि। अनेनेत्यावरणीयं.""ज्ञानस्यावरणीयं ज्ञानावरणीयम्।। सुत्तत्थे य मणसा झायंतो झरको। (नन्दी गा २८ चू पृ८) (तभा ८.५ वृ) २. ज्ञान के प्रवाह को आगे बढ़ाने वाला। ज्येष्ठावग्रह झष संस्थान वर्षाकाल में मुनि चार मास एक ही क्षेत्र में रहते हैं, वह शुभ चिह्न रूप मत्स्य का आकार, जो नाभि के उपरि भागों में ज्येष्ठावग्रह कहलाता है। होता है। वरिसारत्तं चाउम्मासियं, स एव जेट्टग्गहो। "नाभेरुपरि "स्वस्तिक-झष-कलशादिशुभचिह्न"। (दजिचू पृ ३७४) (गोजी ३७१ वृ) ज्योतिःसमारम्भ .."एदाणि संठाणाणि तिरिक्खमणस्साणंणाहीए उवरिमभागे होति। अनाचार का एक प्रकार। अग्नि जलाना, जो मुनि लिए (धव पु १३ पृ २९७) अनाचरणीय है। झषावर्त जोती अग्गी तस्स जं समारंभणं एतदणाचिण्णं। कृतिकर्म (वन्दना) का एक दोष। एक मुनि को वन्दन कर (द ३.४ अचू पृ६१) झष की भांति शीघ्रता से पार्श्व-परिवर्तन कर दूसरे मुनि को ज्योतिष्क देव रेचकावर्त की मुद्रा में वन्दन करना। देवनिकाय का तीसरा प्रकार । वह देवनिकाय, जो तेजोलेश्या उटुिंतनिवेसिंतो उव्वत्तइ मच्छउ व्व जलमज्झे। युक्त होता है और जिसका आवास क्षेत्र मध्य लोक है। चंद्र, वंदिउकामो वऽन्नं झसो व परियत्तए तुरियं॥ सूर्य, नक्षत्र, ग्रह और तारा-ये पांच प्रकार के ज्योतिष्क देव ___ "जिगमिषुरुपविष्ट एव झष इव"त्वरिताङ्गं परावृत्य यद् गच्छति तन्मत्स्योवृत्तं, इत्थं च यदङ्गपरावर्तनं तज्झषावर्तजोइसियाणं "एगा तेउलेस्सा। (प्रज्ञा १७.५३) मित्यभिधीयते। (प्रसा १५९ वृ प ३७) चंदा सूरा य नक्खत्ता, गहा तारागणा तहा। है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy