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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश ११५ भगवान् अजित के अन्तराल-काल में उनके वंशज राजा अनुत्तरविमानों में उत्पन्न हुए अथवा मोक्ष में गए, उनका प्रतिपादन है। ऋषभाजिततीर्थकरान्तरे तद्वंशजभूपतीनां शेषगतिगमनव्युदासेन शिवगमनानुत्तरोपपातप्राप्तिप्रतिपादिकाश्चित्रान्तरगण्डिकाः। (समप्र १२९ वृ प १२२) २. मूल ग्रंथ में प्रतिपादित, अप्रतिपादित अर्थ का संक्षेप में निरूपण करने वाली ग्रन्थपद्धति । पुव्वभणितो अभणिओ य समासतो चूलाए अर्थो भण्यते। __(नन्दीचू पृ ५९) ३. आगम का परिशिष्ट, जिसमें संबद्ध विषयों का संक्षिप्त वर्णन रहता है। चिन्ता ईहा की चौथी अवस्था, जिसमें अन्वयधर्म से अनुगत अर्थ का बार-बार समालोचन किया जाता है। तस्सेव तद्धम्माणुगतत्थस्स पुणो पुणो समालोयणंतेण चिंता भण्णति। (नन्दी ४५ चू पृ ३६) चेतना जो जीव का लक्षण है, ज्ञान-दर्शन रूप है। चेतनालक्षणो हि जीवः। (प्रज्ञावृ प ४५४) चेतना ज्ञानदर्शनात्मिका। (जैसिदी २.३ ७) (द्र उपयोग) चेष्टा कायोत्सर्ग गमन-आगमन आदि प्रवृत्ति की निवृत्ति के समय किया जाने वाला कायोत्सर्ग। चेट्टाकाउस्सग्गो चेद्रातो निष्फण्णो जथा गमणागमणादिस काउस्सग्गो कीरति। (आवचू २ पृ २४८) (द्र अभिभव कायोत्सर्ग) चिर अवग्रहमति व्यावहारिक अवग्रह का एक प्रकार। विषय का चिरकाल से ग्रहण करना, जैसे-शब्द को चिरकाल से ग्रहण करना। अल्पश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमादिपारिणामिकत्वात चिरेण शब्दमवगृह्णाति। (तवा १.१६.१६) चिलिमिली मुनि का एक उपकरण, जिसका उपयोग यवनिका (पर्दे) के रूप में होता है। 'चिलिमिलि' त्ति यवनिका। (ओनि ७८ वृ प ४३) चूर्णपिण्ड उत्पादनदोष का एक प्रकार । अंजन, इष्टका चूर्ण आदि का प्रयोग कर भिक्षा लेना। चर्ण:-नयनाञ्जनादिरन्तर्धानादिफलः। (प्रसा ५६७७) विद्यां मन्त्रं चूर्णं योगं च भिक्षार्थं प्रयुञ्जानस्य चत्वारो विद्यादिपिण्डाः। (योशा १.३८ वृ पृ १३६) चैकित्स्य अनाचार का एक प्रकार । रोग का प्रतिकार करना, चिकित्सा करना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है। चिकित्साया भावश्चैकित्स्य-व्याधिप्रतिक्रियारूपमनाचरितम्। (द ३.४ हावृप ११७) चैतन्य (द्र जीव) चूर्णि नियुक्ति एवं भाष्य के उत्तरकाल में होने वाली आगमों की विश्लेषणात्मक व्याख्या, जो प्राकृत और संस्कृतमिश्र भाषा ___ (नन्दीचू पृ १) चैतन्यकेन्द्र चैतन्य की अभिव्यक्ति का मख्य केन्द्र, चक्र। शरीर का जो भाग करण रूप में परिणत हो जाता है, जो चैतन्य केन्द्र जागृत हो जाता है, उसी में से अतीन्द्रिय-ज्ञानरश्मियां बाहर निकलने लगती हैं। (आभा २.१२७) (द्र मर्म, सन्धि) चैत्यवासी वह मुनि, जो उद्युक्त विहार की चर्या को छोड़कर चैत्य अथवा मठ में आवास करता है। चेइयमढाइवासं पूयारंभाइ निच्चवासितं।" (संबोध ६१) चूला १. दृष्टिवाद के पांच विभागों में से एक विभाग का नाम। 'चूल' त्ति सिहरं। दिविवाते जंपरिकम्म-सुत्त-पुव्व-अणुयोगे यण भणितं तं चूलासु भणितं। (नन्दी ११८ चू पृ७९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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