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________________ ९८ जैन पारिभाषिक शब्दकोश मृषाऽपि भाषेत। अतः क्रोधस्य प्रत्याख्यानं निवृत्तिरनुत्पादो वा, (तेन ) नित्यमात्मानं भावयेत्। (तभा ७.३ वृ) क्रोधसंज्ञा क्रोधवेदनीय कर्म के उदय से होने वाला आवेशात्मक संवेदन। क्रोधवेदनीयोदयात् तदावेशगर्भा पुरुषमुखवदनदन्तच्छदस्फुरणचेष्टा क्रोधसञ्ज्ञा। (प्रज्ञा ८.१ वृ प २२२) क्रोध का विफलीकरण। क्षमा तितिक्षा सहिष्णुत्वं क्रोधनिग्रह इत्यनर्थान्तरम्। ..... क्षमागुणाश्चानायासादीननुस्मृत्य क्षमितव्यमेवेति क्षमाधर्मः। (तभा ९.६.१) क्रोधोत्पत्तिनिमित्तविषह्याक्रोशादिसंभवे कालुष्योपरमः क्षमा। (तवा ९.६.२) कोहोदयस्स निरोहो कातव्वो उदयप्पत्तस्स वा विफलीकरणं एसा खम त्ति। (दअचू पृ ११) (द्र उत्तम क्षमा) क्षमावीर्य क्षपक वैयावृत्त्यकर वह मुनि, जो तपस्वी की सेवा में नियुक्त होता है। (व्यभा १९४३) क्षपक श्रेणी अध्यात्म-विकास की वह श्रेणी, जिसमें मोहकर्म का क्षय किया जाता है, जो आठवें से बारहवें गुणस्थान तक (ग्यारहवें को छोड़कर) होती है। यत्र मोहनीयं कर्मोपशमयन्नात्मा आरोहति सोपशमकश्रेणी। यत्र तत्क्षयमुपगमयन्नुद्गच्छति सा क्षपक श्रेणी। (तवा ९.१.१८) (द्र उपशमश्रेणी) आक्रोश करने पर भी जो क्षुब्ध नहीं होता। क्षमावीर्यं आक्रुश्यमानोऽपि न क्षुभ्यति। (सूत्र १ चू पृ १६४) क्षय क्षपण १. वह मुनि, जिसमें उपवास से लेकर छ: मास की तपस्या करने की क्षमता है और जो क्षमा आदि गुणों से युक्त है। 'खमणि' त्ति चउत्थं छटुं अट्ठमं दसमं दुवालसमं अद्धमासखमणं मास-दुमास-तिमास-चउमास-पंचमास-छम्मासा। "तहा खमादओ य गुणा। जुत्तं ति एतेहिं जहाभिहिएहिं गुणेहिं उववेओ जुत्तो। (निभा २७ चू) २. जो चार प्रकार की गतियों का क्षय करता है अथवा जो कर्मों का क्षय करता है। भवं चउप्पगारं खवेमाणो खवणो भण्णइ। (दजिचू पृ ३३३) अणं कम्म भण्णइ, जम्हा अणं खवयइ तम्हा खवणो भण्णइ। (दजिचू पृ ३४) कर्मों का आत्यन्तिक उच्छेद। क्षयः कर्मणामत्यन्तोच्छेदः। (उशावृप ३३) क्षयोपशम १. चार घाति कर्मों के दबाव को कम करने की प्रक्रिया। इसमें उदयावलिका में आने योग्य कर्मदलिकों को विपाकोदय के अयोग्य बना दिया जाता है, तीव्ररस का मंदरस में परिणमन किया जाता है। घातिकर्मणो विपाकवेद्याभावः क्षयोपशमः । उदयप्राप्तस्य घातिकर्मणः क्षयः अनुदीर्णस्य च उपशम:विपाकत: उदयाभाव इति क्षयोपलक्षित उपशमः क्षयोपशमः । (जैसिदी २.४७ वृ) २. ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायइस कर्म-चतुष्टयी के सर्वघाती स्पर्धकों का क्षय, अंतर्मुहूर्त के बाद उदय में आने वाले स्पर्धकों का उपशम तथा देशघाति स्पर्धकों के उदयकाल में होने वाला विकास। तस्स कम्मस्स सव्वघातिकफडगाणं उदयक्खयात्, तेषामेव सदुपशमात्, देशघातिफड्डगाणं उदयात् खतोवसमितो भावो भवति। (आवचू १ पृ ९७) क्षमा श्रमण धर्म अथवा उत्तम धर्म का एक प्रकार ।क्षमा से उत्पन्न गुणों तथा क्रोध से होने वाले दोषों का चिन्तन कर किया जाने वाला निग्रह । क्रोध के उदय का निरोध तथा उदयप्राप्त क्षान्त (स्था ८.१९) (द्र क्षान्तिक्षम) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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