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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश कालचक्र बीस कोटिकोटि सागरोपम प्रमाण काल का एक चक्र। इसके दो विभाग होते हैं-अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी, जिनमें प्रत्येक के छह-छह अर होते हैं। कालचक्रं विंशतिसागरोपमकोटाकोटि परिमाणं .... (नन्दीहावृ पृ ८४) कालचक्रं विशतिकोटाकोटिप्रमाणं"। (नन्दीमत् प १९६) आगम का एक वर्ग, जो दिन और रात के प्रथम और अन्तिम प्रहर में ही पढ़ा जा सकता है। (नन्दी ७६) दिवसनिशाप्रथमपश्चिमपौरुषीद्वय एव पठ्यते तत्कालेन निर्वृत्तं कालिकम्। (स्था २.१०६ वृ प ४८) कालिकश्रुत-अनुयोगिक कालिकश्रुत का व्याख्याता। कालिकश्रुतानुयोगे-व्याख्याने नियुक्ताः कालिकश्रुतानुयोगिकाः। (नन्दी गा ३२ मवृ प५१) कालिक्युपदेश संज्ञा संज्ञीश्रुत का एक प्रकार। (नन्दी ६१) (द्र दीर्घकालिकी संज्ञा) कालपरमाणु एक समय, काल की अविभाज्य इकाई। कालपरमाणुः समयः। (भग २०.३७ वृ) (द्र समय) कालप्रतिलेखना स्वाध्याय आदि के लिए उपयुक्त समय का ज्ञान करना। आगमविधिना यथावन्निरूपणा ग्रहणप्रतिजागरणरूपा कालप्रत्युपेक्षणा। (उ २९.१६ शावृ प ५८३) कालमण्डली समय की सूचना देने वाली साधुओं की मण्डली। (प्रसा ६९२ वृ) (द्र मण्डली) काललोक लोक का वह स्वरूप, जिसकी व्याख्या काल के आधार पर की जाती है। कालः-समयादिः तद्रूपो लोकः काललोकः । (भग ११.९० वृ) कालोदसमुद्र वह समुद्र, जो अर्धपुष्करद्वीप से परिक्षिप्त है, जिसका विस्तार सोलह लाख योजन है। कालोदसमुद्रः पुष्करवरद्वीपार्धेन परिक्षिप्तः। (तभा ३.८) किन्नर वानमंतर देवों का पहला प्रकार, जो प्रियंगु की भांति श्याम, सौम्य मुद्रा और अत्यंत सुन्दर मुख वाला होता है। सिर पर मकट होता है तथा इसका चिह्न है अशोकवक्ष। तत्र किन्नराः प्रियङ्गश्यामाः सौम्याः सौम्यदर्शना मुखेष्वधिकरूपशोभा मुकुटमौलिभूषणा अशोकवृक्षध्वजा अवदाताः। (तभा ४.१२ वृ) किमिच्छक अनाचार का एक प्रकार। 'कौन क्या चाहता है ?' यों पूछ कर दिया जाने वाला राजकीय भोजन आदि लेना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है। कः किमिच्छतीत्येवं यो दीयते स किमिच्छकः। (द ३.३ हावृ प ११७) किम्पुरुष वानमंतर देव का दूसरा प्रकार । इस जाति के देव की साथल और भुजा सुन्दर, मुख भास्वर, शरीर विभिन्न आभरणों से विभूषित, रंगबिरंगी माला, शरीर पर चंदन आदि का लेप तथा इसका चिह्न होता है चंपकवृक्ष। किम्पुरुषा ऊरुबाहुष्वधिकशोभा मुखेष्वधिकभास्वरा कालातिक्रम अतिथिसंविभाग व्रत का एक अतिचार। साधु को आहार न देने की भावना से भोजन के समय का अतिक्रमण करना। कालस्य-साधुभोजनकालस्यातिक्रमः-उल्लङ्गनकालातिक्रमः। (उपा १.४३ वृ पृ १९) कालादेश वस्तु का वह निरूपण, जो काल की अपेक्षा से किया जाता (भग ५.२०२) कालिक श्रुत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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