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________________ ९० सव्वन्नुपमाणाओ, जइ वि य उस्सग्गओ सुयपसिद्धी । वित्थरओsपायाण य, दरिसणमिइ कारगं तम्हा ॥ (बृभा ३१७) कारणदोष १. मांडलिक दोष का एक प्रकार । आगम-निर्दिष्ट कारणों के बिना आहार करना । छहिं कारणेहिं असणं आहारंतो वि आयरदि धम्मं । वेयणवेज्जावच्चे किरियाठाणे य संजमट्ठाए। त पाणधम्मचिंता कुज्जा एदेहिं आहारं ॥ .......निष्कारणं यदि भुङ्क्ते भोज्यादिकं तदा दोषः । (मूला ४७८, ४७९ वृ पृ ३६९ ) २. वाद - दोष का एक प्रकार। कारण सामग्री के एक अंश को पूरा कारण मान लेना, पूर्ववर्ती होने मात्र से कारण मान लेना । कारणं - परोक्षार्थनिर्णयनिमित्तमुपपत्तिमात्रं, यथानिरुपम - सुखः सिद्धो ज्ञानानाबाधप्रकर्षात् । (स्था १०.९४ वृ प ४६७) कारुणिक दान वह दान, जो मृतक के पीछे दिया जाता है। कारुण्यं - शोकस्तेन पुत्रवियोगादिजनितेन तदीयस्यैव तल्पादेः स जन्मान्तरे सुखितो भवत्वितिवासनातोऽन्यस्य वा यद्दानं तत्कारुण्यदानम् । (स्था १०.९७ वृ प ४९६) कारुण्य भावना का एक प्रकार । अनुकम्पा, दीन प्राणियों पर अनुग्रह भाव । कारुण्यमनुकम्पा दीनानुग्रह इत्यर्थः । कार्मणका योग (तभा ७.६) Jain Education International (कग्र ४.२४) (द्र कार्मणशरीरकायप्रयोग) कार्मण शरीर कर्मपुद्गलों द्वारा निर्मित शरीर, जो कर्म-समूह का आश्रय बनता है। कर्मणा निर्वृत्तं कार्मणम्, अशेषकर्मराशेराधारभूतं कुण्डवद् । (तभा २.३७ वृ) जैन पारिभाषिक शब्दकोश कार्मणशरीर कायप्रयोग अन्तराल गति में जब जीव अनाहारक होता है, उस समय कार्मण काययोग होता है । केवली समुद्घात के तीसरे, चौथे और पांचवें समय में कार्मण काययोग होता है। इह कार्म्मणशरीरकायप्रयोगो विग्रहे समुद्घातगतस्य च केवलिनस्तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु भवति । (भग ८.६४ वृ) कार्यहेतु लोकोपचार विनय का एक प्रकार। 'इसने मुझे ज्ञान दिया' इसलिए उसका विनय करना । कार्यं श्रुतप्रापणादिकं हेतुं कृत्वा, श्रुतं प्रापितोऽहमनेनेति हेतोरित्यर्थी, विशेषेण विनये तस्य वर्त्तितव्यं तदनुष्ठानं च कर्त्तव्यम् । (स्था ७.१३७ वृ प ३८८) काल १. वह द्रव्य, जो वर्तना, परिणमन, क्रिया, परत्व और अपरत्व का हेतु है, उसके प्रदेशों का प्रचय नहीं होता । वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य । (तसू ५.२२) कालोऽनस्तिकायः, तस्य प्रदेशप्रचयाभावात् । (धव पु९ पृ १६८) २. ज्ञानाचार का एक प्रकार। जिस आगम के अध्ययन के लिए जो समय निर्दिष्ट है, उसे उसी समय पढ़ना । यो यस्याङ्गप्रविष्टादेः श्रुतस्य काल उक्तस्तस्य तस्मिन्नेव स्वाध्यायः कार्यो नान्यदा प्रत्यवायसम्भवात् । (प्रसावृ प ६३, ६४ ) ३. महानिधि का एक प्रकार। शुभाशुभ काल का ज्ञान तथा कृषिकर्म, शिल्प आदि का प्रतिपादक शास्त्र । काले कालपणाणं, भव्व पुराणं च तीसु वासेसु । सिप्पसतं कम्माणि य, तिण्णि पयाए हियकराई ॥ (स्था ९.२२.७) ४. परमाधार्मिक देवों का एक प्रकार । वे असुर देव, जो नैरयिकों को दीर्घ चुल्लिका, शुण्ठिका, कन्दुका, प्रचण्डक, कुम्भी, लोहे की कड़ाही आदि में पकाते हैं। मीरासु शुंठएसु य, कंडूसु य पयणगेसु य पयंति । कुंभीय लोहीसु य, पयंति काला तु नेरइया ॥ (सूत्रनि ७४) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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