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________________ प्रबन्धकोश आकारकी रेखा दी है; और 'इ' के लिये ऐसा सङ्केत किया है। 'उ' के लिये उ ऐसा छोटा कदका 'उ'कार, 'ए' के लिये ए और 'ऐ' के लिये ए ऐसा पृष्ठमात्रायुक्त 'ऐ'कार लिखा हुआ है। सम्बोधनात्मक पदको स्पष्टतया सूचित करनेके लिये उसके ऊपर हि ऐसा पृष्ठमात्रावाला 'हे'कार लिख दिया गया है। अनेक स्थलोंमें, शब्दविशेषों परखास करके प्राकृत शब्दों पर-कुछ टिप्पनके रूपमें, प्रतिशब्द या अर्थबोधक देश्य शब्द भी, हाशियोंमें लिख दिये गये हैं और उनका स्थान निर्दिष्ट करनेके लिये उस उस शब्दके ऊपर = ऐसा छोटा डबल डेंस दे दिया गया है। इस प्रकार, इस प्रतिको लिपिकर्ताने बडे अच्छे ढंगसे-बहुत ही स्पष्ट और सुवाच्य बनानेकी इच्छासे-खूब प्रेमसे लिखा मालूम देता है। ___ वास्तवमें, प्रबन्धकोश तो, इस प्रतिमें, ९२ वें पन्नेकी पहली पूंठी पर समाप्त होगया है। उसके पीछे, लिपिकर्ताने प्रबन्धचिन्तामणिके प्रथम प्रकाश गत मुञ्जराजचरितके प्रारंभसे लेकर, भोज-भीमभूप-वर्णन नामका उसका पूरा दूसरा प्रकाश (-हमारी आवृत्तिके पृष्ठ २१ से ५२ तकका, मुंज-भोजके सम्बन्धका, समग्र वृत्तान्त) लिख दिया है। अन्तमें इस प्रकार प्रबन्धचिन्तामणिका यह प्रकरण लिखा हुआ होनेसे, उक्त भण्डारकी सूचि में इस प्रतिका नाम भी केवल प्रबन्धचिन्तामणि ही लिखा हुआ है। प्र० चि० का सम्पादन करते हुए हमने इस प्रतिका भी, उक्त प्रकरणके पाठ-संशोधनमें उपयोग किया था और इसकी संज्ञा वहां Pa रखी थी (-देखो प्र० चिं० प्रस्तावना, पृष्ठ ७.) - इस प्रतिके कुछ पन्ने नष्ट होगये मालूम देते हैं। १० से २० तकके पन्ने किसी दूसरेके हाथके लिखे हुए हैं और पीछेसे इसमें मिलाये हुए हैं। ४२ और ४३ वें पन्ने हैं तो इसी लिपिकर्ताके हाथके लेकिन हैं वे किसी दूसरे ग्रन्थके । ये दो पन्ने किसी नाटकके हैं। आद्यन्त न होनेसे नाटकका नाम नहीं मिल सका । हरिश्चन्द्र विषयक कोई प्रकरण है। ४३ वें पन्नेमें उसका ५ वा अंक समाप्त होता है। मालूम देता है, सागरतिलक सूरि-ही-के हाथकी लिखी हुई नाटकग्रन्थकी कोई प्रति, और प्रबन्धचिन्तामणिकी यह प्रति, कभी किसी वेष्टनमें, एक साथ बन्धी रही होगी और कभी किसी कारणसे पन्नोंमें गडबड उपस्थित होनेसे, इसके पन्ने उसमें और उसके पन्ने इसमें, रख दिये गये होंगे। पन्नोंका रंग-ढंग और नाप आदि एकसा ही होनेसे ऐसी गडबडीका होना सहज है। ___B प्रति.-पाटणवाले उसी भण्डारमेंकी दूसरी प्रति । इसकी पत्र-संख्या कुल ५७ है । लिपिकर्ता वगैरहका कोई उल्लेख नहीं है । अक्षर अच्छे हैं लेकिन पाठ-शुद्धि साधारण है। प्रति है पुरातन; करीब च्यार सौ वर्षसे पहलेकी लिखी हुई होगी। C प्रति.-उक्त भण्डारमेंकी एक तीसरी प्रति । यह प्रति त्रुटित है। इसमें, बीच बीच में से, बहुतसे पन्ने नष्ट होगये हैं। इसके अक्षर अच्छे बडे और सुवाच्य हैं। परंतु बहुतसा भाग खण्डित होनेसे इसका कुछ अधिक उपयोग न हो सका । अन्तके पन्ने भी बहुतसे नहीं हैं। इससे लिखे जानेके समय आदिका कुछ पता नहीं लग सका । प्रतिका रंग-ढंग देखनेसे मालूम देता है कि, यह, सम्भवतः A प्रतिसे भी कुछ पुरातन हो। ___E. D. प्रति. ये दोनों प्रतियां अहमदाबादके सुप्रसिद्ध डेलाके उपाश्रयमें रक्षित ग्रन्थभण्डारमें से प्राप्त हुई हैं। ये दोनों एक ही लिपिकर्ताके हाथकी लिखी हुई हैं। इनका लिखनेवाला कोई व्यावसायिक लेखक है-जिसे गूजरातीमें लहीया कहते हैं। उसको भाषा या विषयका किंचित् भी ज्ञान नहीं मालूम देता । 'चतुर्विंशतिप्रबन्धाः ' की जगह 'चतुव्यंशतप्रबन्धाः ' और 'शिवमस्तु' के स्थान पर 'शवमस्तु' लिखा है। E प्रतिके अन्तमें उसने अपन भधरसत पंडत मेघा लिखितं । इस प्रकार किया है। D प्रतिके अन्तमें लेखनसमाप्तिके समयका भी उल्लेख है। यथा संवत् १५२९ आसोविदि ९ भोमे । पंडित मेघा लिखितं । www.jainelibrary.org Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only ation International For Private & Personal Use Only
SR No.016085
Book TitlePrabandh kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshekharsuri, Jinvijay
PublisherSinghi Jain Gyanpith
Publication Year1935
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size15 MB
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