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________________ प्रास्ताविक वक्तव्य । लिये यह एक आदर्शभूत ग्रन्थ कहा जा सकता है । संस्कृत भाषा भी ऐसी सरल बनाई और लिखी जा सकती है, जिसको बहुत सुगमताके साथ अधिक जनता समझ सके, इस बातकी, यदि संस्कृत-प्रेमियोंको कुछ आकांक्षा है, तो उन्हें भाषाके कलेवरको देश्य और विदेश्य ऐसे अनेक नये नये शब्दों द्वारा पुष्ट करना ही चाहिए। उससे हमारी इस मातामहीकी मृतप्राय आत्मा पुनः सचेतन हो सकती है; और, वह पुनर्जन्म धारण कर आर्य संस्कृतिका पुनरुत्थान करनेमें हमें एक नई शक्ति प्रदान कर सकती है । मालूम देता है, कि इस प्रकार सरल रचना होने-ही-से, इस प्रन्थका, प्रबन्धचिन्तामणि वगैरह ग्रन्थोंकी अपेक्षा, अधिक प्रसार और वाचन-पठन होता रहा है और इसी कारण इसकी प्राचीन हस्तलिखित प्रतियां जहां वहां भण्डारों में यथेष्ट संख्यामें उपलब्ध होती हैं। ६९. प्रस्तुत आवृत्तिकी संशोधन-सामग्री इस ग्रन्थका पाठ-संशोधन करने में हमने जिन जिन प्रतियोंका मुख्य आधार लिया है, उनका वर्णन इस प्रकार है। A प्रति.-पाटणके संघवाले ग्रन्थभण्डारसे प्राप्त प्रति । इसके अन्तभागमें लिपिकर्ताने अपना नाम-ठाम आदि सूचक इस प्रकार पुष्पिका-लेख लिखा है संवत् १४५८ वर्षे प्रथम भाद्रपद शुदि ११ एकादश्यां तिथौ बुधवारे श्रीसागरतिलकसूरिणा वशिष्यपठनार्थं श्रीअणहिल्लपुरपत्तने प्रबन्धानि राजशेष(ख)र सूरिविरचितानि आलिलिखे । यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया । यदि शुद्धमशुद्धं वा मम दोषो न दीयते ॥ १॥* अर्थात्-संवत् १४५८ के वर्षके प्रथम भाद्रपद मासकी शुदि ११ और बुधवारके दिन, सागरतिलक सूरिने अपने शिष्यके पढनेके लिये, अणहिल्लपुर पाटनमें, राजशेखर सूरिके बनाए हुए इन प्रबन्धोंकी प्रतिलिपि की । इससे सूचित होता है कि इस प्रतिको एक विद्वान् आचार्यने अपने हाथसे लिखी है-और सो भी निजके शिष्यके पढनेके लिये; अतः इसे एक उत्तम प्रकारकी, आदर्शभूत, प्रति कहना चाहिए। इसके अक्षर बहुत ही सुन्दर और सुवाच्य हैं तथा पाठ भी प्रायः शुद्ध और निर्धान्त है। इसके पन्नोंकी कुल संख्या १०५ है। पन्नोंका नाप, अन्य सर्व सामान्य प्रतियोंसे कुछ बडा है। वे लम्बाईमें करीब पूरे १ फूट, और चौडाईमें करीब ५ इंच जितने हैं। पन्नेकी प्रत्येक पूंठी (पृष्ठि पार्श्व) पर १५-१५ पंक्तियां हैं। मध्य भागमें, दोनों तरफ, कहीं चतुष्कोण और कहीं कुण्डाकृतिके रूपमें १-१ इंच जितनी जगह कोरी रख दी गई है, जिसमें, पुरातन तालपत्रकी पोथियोंकी तरह सूत पिरोनेके लिये छेद बने हुए हैं। प्रत्येक पंक्तिमें, जहां जहां आवश्यकता मालूम दी, पदच्छेद बतलाने के लिये, अक्षरोंके शीर्ष पर वैदिक स्वरचिह्न के ढंगकी ' ऐसी सूक्ष्म दण्ड-रेखा दे दी गई है । स्वर-सन्धिके नियमानुसार जहां स्वरोंका लोप अथवा सन्धि होकर रूपान्तर हो गया मालूम दिया, और जिससे पढनेवालेको पदच्छेद या सन्धिच्छेद करने में कुछ क्लिष्टता प्रतीत होती मालूम दी वहां, लिपिकर्ताने उन उन अक्षरोंके सिरे पर, तत्तत स्वरसुचक कुछ चिर आदि लिख दिये हैं । यथा 'अ अक्षरके लिये ऽ ऐसा सूक्ष्म अवग्रह चिह्न लिखा है; 'आ' के लिये कहीं ऐसी और कहीं ऐसी, काकपादके * इस पंक्तिके बाद, निम्न लिखित ५-६ पद्य भी लिपिकर्ताने कहींसे लिख लिये मालूम देते हैं । दाता बलिर्याचयिता मुरारिर्दानं मही वाचि मुखस्य काले । दातुः फलं बन्धनमेव जातं नमो नमस्ते भवितव्यतायै ॥१॥ भ्रातः पाणिनि संवृणु प्रलपितं कातन्त्रकन्था वृथा मा कार्षीः कटु शाकटायनवचः क्षुद्रेण चान्द्रेण किम् । कः कण्ठाभरणादिभिर्बठरयत्यात्मानमन्यैरपि श्रूयन्ते यदि तावदर्थमधुराः श्रीसिद्धहेमोक्तयः॥२॥ गोअंडौ पडिऊ पिच्छ हले गोकुसुमतले णहि पिच्छ हले। गोचलणथियाऊ पिच्छ हले गोदंतिहिं खजई पिच्छ हले ॥ ३॥ वटवृक्षो महानेष मार्गमावृत्य तिष्ठति । तावत्त्वया न गन्तव्यं यावदन्यत्र गच्छति ॥४॥ नमो दुर्वाररागादिजैत्रे ते यत्र यः सखा । न्यायसम्पन्न विभवः सादरोपि विमुंचति ॥५॥ अहिंसापरमो धर्मो वैरवारनिवारणे । कातंत्रस्य प्रवक्ष्यामि कथा तुभ्यमहं हितांत् ॥६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016085
Book TitlePrabandh kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshekharsuri, Jinvijay
PublisherSinghi Jain Gyanpith
Publication Year1935
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size15 MB
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