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पाइअसद्दमहण्णवो
विवर-विवित्त
विवर न [विवर] १ छिद्र (पाश्र; गउड विवलाअमाण (से ३, ६०; गा २६१ विवाय स + पादय ] मार डालना। प्रासू ७३) । २ कन्दरा, गुहा (से ६, ४६)। गउड १६६ से १५, १४; गउड ४७२)।- विवाएमि (विसे २३८५)। वकृ. विवाएंत, ३ एकान्त, विजन: 'कामज्झयाए गरिणयाए विवलाअ वि [विपलायित] भागा हुआ विवायंत (पउम ५७, ३१, २७, ३७)। बहरिण अंतराणि य छिद्दारिण य विवराणि य (से १, २; १४, ३०)।
विवाय देखो विवाग (सुर १२, १३६; स पडिजागरमाले विहरति' (विपा १२
विवलिअ वि [विवलित ] मोड़ा हुआ, २७५; ३२१; सं ११८ सण)। पत्र ३४) । ४ पुंन. प्राकाश (भग २०, २)
परावर्तित (गा ६८०; गउड ४२४, काप्र 'सव्वं चिय सूहदुक्खं विवरंमुह वि [विपराङ्मुख] विमुख, १६५)।
पुबज्जियसुकयदुक्कयविवाया। पराङ्मुख (पउम ७३, ३०; से ६,४२)। विवलीअ देखो विवरीअः 'विवलीअभासए'
जायइ जियाण जंता विवरण न [विवरण १ व्याख्यान, 'सोऊण (अणु)।
को खेसो सकयउवभोगे' सुमिणविवरण' (सुपा ३८)। २ व्याख्याविवल्हत्थ वि [विपर्यस्त] विपरीत, उलटा
(उप ७२८ टी)। कारक ग्रंथ, टीका (विसे ३४२२, पव
विवायण वि [विवादन] विवाद-कर्ताः 'ते गाथा ३६; सम्मत्त ११६)। ३ बाल सँवारना
दोवि विवायणु व रायकुले' (धर्मवि २०) ।' विवस वि [विवश] १ अधीन, परायत्त, (दे १,१५० पय ३.)।'
विवाविड न [दे] अतिशय गौरव (संक्षि
परतन्त्र (प्रासू १०७ कुमाः कम्म १, ५७)। विवरामुह । देखो विवरंमुह (भवि; से ११,
४७).
२ बाध्य, लाचार (कुप्र १३५) । विवराहुत्त ८५)।
विवाह सक [वि + वाह्य ] लग्न करना, विवह सक [वि + वह.] विवाह करना, विवरिअ वि | विवृत ] व्याख्यात (विसे
शादी करना । विवाहेमो (कुप्र १३१)। शादी करना (प्रामा)। १३६६; स ७१७)। देखो विवुअ।
विवाह देखो विआह = विवाह (उवाः स्वप्न विवहण न [विव्यधन] विनाश (णाया विवरिअ (अप) नीचे देखो (सण)।
५१, सम १८८) गणय पुं[गणक] १, १-पत्र ६५)।
ज्योतिषी, जोशी (दे ६, १११).। जन्न विवरीअ वि [विपरीत] उलटा, प्रतिकूल
विवाइअ व [विपादित] व्यापादित, जो पु[यज्ञ] विवाह-उत्सव (मोह ४४) ।। (भग १, १ टोः गउड; कप्पू; जी १२, सुपा
जान से मार डाला गया हो वह छिद्देण । विवाह देखो विआह = विवाध (सम १ ६१०) । णु वि [ज्ञ] उलटा, जाननेवाला
विवाइप्रो वाली' (पउम ३,१०; उत्त १६, ८८)(धर्मसं १२७४)
५६; ६३)।
विवाह देखो विआह = व्याख्या (सम १; विवरीर । (अप) ऊपर देखोः 'घई विवरीरी |
विवाउग वि [विवादक] विवाद-कर्ता (स ८८)।विवरेर बुद्धडी होइ विरणासहो कालि'
४५६)।
विवाहाविय वि [विवाहित] जिसकी शादी (हे ४, ४२४), 'माइ कज्जु विवरेरमो दीसई' विवाग पु[विपाक] १ कर्म-परिणाम, सुख
कराई गई हो वह (महा)। (वि)
विवाहिय वि [विवाहित] जिसकी शादी विवरुक्ख । वि [विपरोक्ष ] परोक्ष, अ
दुःखादि भोग रूप कर्म-फल (ठा ४, १
पत्र १८८ विपा १,१; उवः सुपा ११०: हुई हो वह (महा सण)।विवरोक्ख' प्रत्यक्ष; 'जावच्चिय दहवयणो
सणः प्रासू १२२)। २ प्रकर्ष; 'वविवागविवरोक्खो प्रावलीए धूयाए (पउम ६,
विविइसा स्त्री [विविदिषा] जानने की इच्छा, ११)। २ न. अभाव; 'पासम्मि अहंकारो परिणामा' (ठा ४, ४ टी-पत्र २८३) ।
जिज्ञासा (अज्झ ६६)। ३ पाककालः 'जं से पुणो होइ दुहं विवागे'
विविक्क देखो विवित्त (सून १, १, २, १७)। होहिइ कह वा गुरणारण विवरुक्खें' (गउड ७६)। ३ परोक्षता, अप्रत्यक्षपन (उत्त ३२, ३३)। विजय पुंन ["विचय]
विविच सक [वि + विच्] पृथक् करना, धर्मध्यान का एक भेद, कर्म-फल का अनु'इय ताहे भावागयपच्चक्खायंतणरवइगुणाण ।
अलग करना। संकृ. विविचित्ता (सूअ २, विवरोक्खम्मि वि जाया कईण संबोहणालावा' चिन्तन (ठा ४, ४-पत्र १८८)। "सुय
४, १०)।
विविण न [विपिन] जंगल, वन (गउड; .
न ["श्रुत] ग्यारहवाँ जैन अङ्ग-ग्रंथ (सम (गउड १२०४) ।
नाट-चैत ७२)।विवल अक [वि + वल] मुड़ना, टेढ़ा
१; विपा १, १; प्रौप)।
विवित्त वि [विविक्त] १ रहित, वजित । होना (गउड ४२४)।
विवागि वि [विपाकिन् विपाकवाला (प्रज्झ
गावविपाकिन् विपाकवाला (अज्झ२ पृथग्भूत (दस ८, ५३; भग६, ३३; विवला अक [विपरा + अय ] पलायन
उत्त २६, ३१; उव) । ३ विविध, अनेकविध विवलाअ करना, भाग जाना। विवलाइ, विवाद। [विवाद] झगड़ा, तकरार, वाक्- | 'पासवेहि विवित्तेहिं तिप्पमाणो हियासए । विवलायइ, विवलानंति (गउड ६३४; विवाय ) कलह, जबानी लड़ाई (उवा; उवः । गंथेहि विवित्तेहिं आउकालस्स पारए' ११७६; पि ५६७)। वकृ. विवलाअंत, स ३८५; सुपा २८२, ३६१)।
(पाचा १,८,८,६१०)।
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