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________________ अगीयत्थ-अग्गि पाइअसद्दमहण्णवो अगीयस्थ वि [अगीतार्थ] ऊपर देखो ( ववभाग ही कारण होता है। जैसे आम, कोरंटक व | भाग ही कारण होता है। जैसे प्राम, कोरंटक उपलक्ष्य में मनाया जाता उत्सव, जिसको गुज१)। प्रादि वनस्पति (पएण १, ठा ४,१) । मणि राती भाषा में 'अग्घयणी' कहते हैं (सुपा अगुज्झहर वि [दे] गुप्त बात को प्रकाशित पुं [मणि] मुख्य. श्रेष्ठ, शिरोमणि (उप २३)। करनेवाला (दे १,४३)। ७२८ टी)। महिसी स्त्री [ महिषी] पट- | अग्गहि वि [आग्रहिन] प्राग्रही, हठी (सूप अगुण देखो अउण (पि २६५)। रानी (सुपा ४६) । °य वि [°ज] १ प्रागे १,१३) । अगुण वि [अगुण] १ गुणरहित, निर्गुण उत्पन्न होने वाला। २ पुं. ब्राह्मण। ३ बड़ा अग्गहिअ वि[दे] १ निर्मित, विरचित । २ (गउड)।२ पुं. दोष, दूषण (दस ५)। भाई। ४ स्त्री. बड़ी बहन (नाट)। लोग स्वीकृत, कबूल किया हुआ (षड्)। अगुणासी देखो एगूणासी (पव २४) । पुं[लोक मुक्तिस्थान, सिद्धि-क्षेत्र (श्रा १२)। अग्गाणी वि [अग्रणी] मुख्य, प्रधान, नायक अगुणि वि [अगुणिन] गुण-वजित, निर्गुण हत्य पुं [ हस्त] १ हाथ का अग्र-भाग 'दक्खिन्नदयाकलिनो अग्गारणी सयलवरिणय(गउड)। (उवा) । २ हाथ का अवलम्बन, सहारा (से सत्थस्स' (सुर ६,१३८)। अगुरु । वि [अगुरु] १ बड़ा नहीं सो, अग्गारण न [उद्गारण] वमन, वान्ति (चारु अगुरु) छोटा, लघु । २ पुंन. सुगन्धि काष्ठ अग्ग न [अग्र] १ प्रभूत, बहु । २ उपकार ७)। विशेष, अगुरु-चन्दनः 'धूवेण कि (पाचानि २८५)। भाव न [ भाव] अग्गाह वि[अगाध अगाध, गंभीरः 'खीराअगुरुणो किमु कंकणेण' ( कप्पू; | धनिष्ठा-नक्षत्र का गोत्र (जं ७, पत्र. ५००)। दहिणव्य अग्गाहा (गुरु ४)। पउम २,११)। माहिसी देखो महिसी (उत्त १६, १)। अग्गाहार पुं [अप्राधार] ग्राम-विशेष का अगुरुलहु । देखो अगुरुलहु (सम ५१, अग्ग वि [अश्य] १श्रेष्ठ, उत्तम (से ८,४४)। नाम (सुपा ५४५)। अगुरुलहुअठा १०)। २ प्रधान, मुख्य (उत्त १४)। अग्गाहार पुं[दे. अग्राहार] उच्च जीविका अगुल देखो अगुरुः 'संखतिणिसागुलुचंदणाई' अम्गओ प [अग्रतस् ] सामने, आगे (कुमा)। (सुख २,१३) । (निचू २)। अग्गंथ वि [अग्रन्थ] १ धनरहित। २ पुं. अग्गि " [अग्नि] नरकावास-विशेष, एक अग्ग न [अग्रव] प्रकर्ष (उत्त २०, १५)। जैन साधु (प्रौप)। नरक-स्थान (देवेन्द्र २७)। मंत, वंत वि अग्ग पुन [दे] १ परिहास । २ वर्णन (संक्षि अग्गक्खंध पुं[दे] रणभूमि का अग्रभाग (दे [मत् ] अग्निवाला (प्राकृ ३५)। हुत्त ४७)। १,२७)। देखो होत्त (उत्त २५,१६, सुख २५,१६) । अग्ग न [अग्र] १ आगे का भाग, ऊपर का अग्गल न [अर्गल] १ किवाड़ बन्द करने की अग्गि पुं स्त्री [अग्नि] १ प्राग, वह्नि (प्रासू भाग ( कुमा)। २ पूर्वभाग, पहले का भाग लकड़ी, पागल (दस ५,२)।२ पुं. एक महा २२); 'एस पुण कावि अरगी' (सट्ठि ६१)। (निचू १)। ३ परिमारण, 'अगं ति वा परिग्रह (सुज २०)। पासय पुं[पाशक] २ कृत्तिका नक्षत्र का अधिष्ठायक देव (ठा २, माणं ति वा एगट्ठा' (पाचू १)। ४ वि. प्रधान, | जिसमें पागल दिया जाता है वह स्थान (प्राचा | ३)। ३ लोकान्तिक देव-विशेष (प्रावम)। श्रेष्ठ (सूपा २४८)। ५ प्रथम, पहला (पाव २,१,५) । पासाय पुं [प्रासाद] जहाँ आरिआ स्त्री [कारिका] अग्नि-कर्म, होम १)। क्खंध पुं[स्कन्ध] सैन्य का अग्र आगल दिया जाता है वह घर (राय)। (कप्पू)। उत्त पुं[पुत्र] ऐरवत क्षेत्र के भाग (से ३,४०)। गामिग वि [गामिक] अग्गल वि[दे] अधिक, 'वीसा एकग्गला' एक तीर्थंकर का नाम (सम १५३)। कुमार अग्रगामी, आगे जानेवाला (स १४७)। ज (पिंग)। पुं[कुमार] भवनपति देवों की एक अवादेखो य (दे ६, ४६) । जम्म [°जन्मन] अग्गला स्त्री [अर्गला पागल, हुड़का(पाप)। न्तर जाति (पएण १)। कोण पुं[कोण] देखो य (उप ७२८ टी)। जाय [°जात] | अग्गलिअ वि [अर्गलित] जो पागल से बन्द पूर्व और दक्षिण के बीच की दिशा (सुपा देखो य (प्राचा)। जीहा स्त्री [जिह्वा] किया गया हो वह (सुर ६,१०)। ६८)। जस पुं[ यशस] देव-विशेष जीभ का अग्न-भाग । °णिय, °णी वि [°णी] अम्गवेअ [दे] नदी का पूर (दे १,२६)। (दीव) । जोय पुं[ द्योत] भगवान् महाअगुआ, मुखिया, नायक (कप्पा नाट)। तावस अग्गह पुं [आग्रह] अाग्रह, हठ, अभिनिवेश वीर का पूर्वीय बीसवें ब्राह्मण-जन्म का नाम पुं[तापस] ऋषि-विशेष का नाम (सुज (सूम १,१,३; स ५१३)। (प्राचू)। दृ वि [°स्थ] आग में रहा हुआ १०)। द्धन [1] पूर्वाध (निचू १)। अग्गहण न [अग्रहण] १ प्रज्ञान (सुर १२, (हे ४,४२६)। "ट्ठोम पुं[टोम] यज्ञ-विशेष "पिंड पुं[पिण्ड] एक प्रकार का भिक्षान्न ४६) । २ नहीं लेना (से ११,६८)। (पि १०:१५६)। थंभणी स्त्री[स्तम्भनी] (आचा) । पहारि वि [प्रहारिन्] पहले अग्गहण न [दे. अग्रहण] अनादर, अवज्ञा माग की शक्ति को रोकनेवाली एक विद्या प्रहार करनेवाला (आव १)। बीय वि (दे १,१७७ से ११,६८)। (पउम ७, १३६)। दत्त पुं[दत्त] १ [-] जिसमें बीज पहले ही उत्पन्न हो अग्गहणिया स्त्री [दे] सीमंतोन्नयन, गर्भाधान भगवान् पार्श्वनाथ के समकालीन ऐरवत क्षेत्र जाता है या जिसकी उत्पत्ति में उसका अग्र- के बाद किया जाता एक संस्कार और उसके के एक तीर्थकर देव (तित्थ)। २ भद्रबाहु Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016080
Book TitlePaia Sadda Mahannavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas T Seth
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1986
Total Pages1010
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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