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________________ षड्भाषाचन्द्रिकाकार पिशाच-देशों की भाषा को ही पैशाची कहते हैं और पिशाच-देशों के निर्देश के लिए नीचे उत्पत्ति-स्थान के श्लोकों को उद्धृत करते हैं : 'पाएज्यकेकयवाहीकसह्यनेपालकुन्तलाः । सुधेष्णभोजगान्धारहैवकन्नोजनास्तथा । एते पिशाचदेशाः स्युः' मार्कण्डेय ने अपने प्राकृतसर्वस्व में प्राकृतचन्द्रिका के 'काञ्चीदेशीयपाएज्य च पाञ्चाल गौड-मागधम् । वाचडं दाक्षिणात्यं च शौरसेनं च कैकयम् ॥ शाबरं द्राविडं चैव एकादश पिशाचजाः । - इस वचन को उद्धृत कर ग्यारह प्रकार की पैशाची का उल्लेख किया है। परन्तु बाद में इस मत का खण्डन करके सिद्धान्त रूप से इन तीन प्रकार की पैशाची का ग्रहण किया है; यथा-'कैकयं शौरसेनं च पाञ्चालमिति च त्रिधा पैशाच्यः' । लक्ष्मीधर और मार्कण्डेय ने जिन प्राचीन वचनों का उल्लेख किया है उनमें पाण्ड्य, काञ्ची और कैकय आदि प्रदेश एक दूसरे से अतिदूरवर्ती प्रान्तों में अवस्थित हैं। इतने दूरवर्ती : देश एकदेशीय भाषा के उत्पत्ति-स्थान कैसे हो सकते हैं? यदि पैशाची भाषा किसी प्रदेश की भाषा न हो कर भिन्न भिन्न प्रदेशों में रहनेवाली किसी जाति-विशेष की भाषा हो तो इसका संभव इस तरह हो भी सकता है कि पूर्वकाल में किसीक देश-विशेष में रहनेवाली पिशाच-प्राय मनुष्य-जाति. बाद में भिन्न-भिन्न देशों में फैलती हुई वहाँ अपनी भाषा को ले गई हो। मार्कण्डेय-निर्दिष्ट तीन प्रकार की पैशाची परस्पर संनिहित प्रदेशों की भाषा है, इससे खूब ही संभव है कि यह पहले केकय देश में उत्पन्न हुई हो और बाद में समीपस्थ शूरसेन और पजाब तक फैल गई हो। मार्कण्डेय ने शौरसेन-पेशाची और पाश्चाल-पैशाची की प्रकति जोकर गाडी बडी है इसका मतलब भी यही हो सकता है। सर ग्रियरन के मत में पिशाच-भाषा-भाषी लोगों का आदिम वासस्थान उत्तर-पश्चिम पजाब अथवा अफगानिस्थान का प्रान्त प्रदेश है और बाद में वहाँ से ही संभवतः इसका अ जाना है। किन्तु डॉ. हॉनाल का इस विषय में और ही मत है। उनका कहना यह है कि अनार्य जाति के लोग आर्य-जाति की भाषा का जिस विकृत रूप में उच्चारण करते थे वही पैशाची भाषा है, अर्थात् इनके मत से पैशाची भाषा को किसी देश-विशेष की भाषा है और न वह वास्तव में भिन्न भाषा ही है। हमें सर ग्रियर्सन का मत ही प्रामाणिक प्रतीत होता है जो मार्कण्डेय के मत के साथ अनेकांश में मिलता-जुलता है। वररुचि ने शौरसेनी प्राकृत को ही पैशाची भाषा का मूल कहा है। मार्कण्डेय ने पैशाची भाषा को कैकय, शौरसेन और पाञ्चाल इन तीन भेदों में विभक्त कर संस्कृत और शौरसेनी उभय को कैकय-पैशाची का और कैकय-पैशाची को शौरसेन पैशाची का मूल बतलाया है। पाञ्चाल-पैशाची के मृल का उन्होंने निर्देश ही नहीं किया है, किन्तु उन्होंने इसके जो केरी (कैलिः) और मंदिल ( मन्दिरम् ) ये दो उदाहरण दिये हैं इससे मालूम होता है कि इस पाळचालप्रकृति पैशाची का कैकय-पैशाची से रकार और लकार के व्यत्यय के अतिरिक्त अन्य कोई भेद नहीं है, सुतरां शौरसेन-पैशाची की तरह पाञ्चाल-पैशाची की प्रकृति भी इनके मत से कैकय-पैशाची ही हो सकती हैं। पहा यह कहना आवश्यक है कि मार्कण्डेय ने शौरसेन-पैशाची के जो लक्षण दिए हैं उन पर से शौरसेन-पैशाची का १. वर्तमान मदुरा और कन्याकुमारी के आसपास के प्रदेश का नाम पाण्ड्य, पञ्चनद प्रदेश का नाम केकय, अफगानिस्थान के वर्तमान वाल्खनगरवाले प्रदेश का नाम वाहीक, दक्षिण भारत के पश्चिम उपकूल का नाम सह्य, नर्मदा के उत्पत्ति-स्थान के निकटवर्ती देश का नाम कुन्तल, वर्तमान काबूल और पेशावरवाले प्रदेश का नाम गान्धार, हिमालय के निम्न-वर्ती पार्वत्य प्रदेशविशेष का नाम हैव और दक्षिण महाराष्ट्र के पार्वत्य अञ्चल का नाम कन्नोजन है। २. "प्रकृतिः शौरसेनी" (प्राकृतप्रकाश १०, २)। ३. “सस्य शः", "रस्य लो भवेत्", "चवर्गस्योपरिष्टाद् यः" "कृतादिषु कडादयः", "क्षस्य च्छ', "स्थाविकृतेः ट्रस्य श्तः", "त्तत्थयोः श ऊध्वं स्यात्", "अतः सोरो (?) त्" (माकुतसर्वस्व, पृष्ठ १२६)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016080
Book TitlePaia Sadda Mahannavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas T Seth
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1986
Total Pages1010
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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