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________________ इन्द्रियाँ एगप्पा अजिए सत्तू , कसाया इन्दियगणि य । अविजित कषाय और इन्द्रियाँ ही आत्मा की शत्रु है । --उत्तराध्ययन ( २३/३८) चक्खिदियदुहंतत्तणस्स, अह एत्तिओ हवइ दोसो। जं जलणंमि जलंते, पडइ पयंगो अबुद्धीओ ॥ चक्षु-इन्द्रिय की आसक्ति का इतना बुरा परिणाम होता है कि मुर्ख पतंगा जलती हुई अग्नि में गिरकर मर जाता है। ~-ज्ञाताधर्मकथा ( १/१७/४) मोहं जंति नए असंवुडा। इन्द्रियों के दास असं वृत्त मानव हिताहित निर्णय के क्षणों में मोहमुग्ध हो जाते हैं। -सूत्रकृताङ्ग ( १/२/१/२०) सपरं बाधासहियं, विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । जं इन्दियेहि लद्ध, तं सोक्खं दुक्खमेव तहा॥ जो सुख इन्द्रियों से उपलब्ध होता है, वह पराश्रित, बाधासहित, विच्छिन्न बन्ध का कारण और विषम होने से यथार्थ में सुख नहीं अपितु दुःख ही है।। -प्रवचनसार ( १/७६ ) इदियचवलतुरंग, दुग्गइमग्गाणुधाविरे निच्चं । इन्द्रिय रूपी चपल घोड़े नित्य दुर्गति-मार्ग पर दौड़नेवाले हैं । -इन्द्रियपराजय-शतक (२) अजिई दिएहि चरणं, कट्टे व धुणेहि कीरइ असारं । काष्ठ में जन्म लेनेवाले घुण नामक जन्तु जिस तरह काष्ठ को ही अन्दर से असार कर देता है उसी तरह इन्द्रियाराम बने मनुष्यों के चरित्र को इन्द्रियाँ असार-निष्फल कर देती है । -इन्द्रियपराजय-शतक (४), Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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