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________________ जो व्यक्ति हिताहारी है, मिताहारी है और अल्पाहारी है, उन्हें किसी वैद्य से चिकित्सा करवाने की जरूरत नहीं है, वह स्वयं ही स्वयं का वैद्य है, चिकित्सक है। -ओघनियुक्ति ( ५७८) नासइ दिवसो कुभोयणे दिवसे । कुभोजन करने से दिन नष्ट हो जाता है । -वज्जालग्ग (८/६) मोक्खपसाहणहेतु, णाणदि तप्पसाहणो देहो। देहट्टण आहारो, तेण तु कालो अणुण्णातो ॥ ज्ञान आदि मोक्ष के साधन है और ज्ञान आदि का साधन शरीर है । शरीर का साधन आहार है। अतः मनुष्य को समयानुकूल आहार करना चाहिये । -निशीथ भाष्य ( ४१५६) राइभोयण वज्जणा। रात्रि में भोजन करना वर्जनीय है । -उत्तराध्ययन ( १६/३० ), गुणकारित्तणातो ओमं भोत्तव्वं । अल्प आहार गुणकारी है । -निशीथचूर्णि-भाष्य ( २६५१) इन्द्रिय-दमन सहेसु आ रूवेसु अ, गंधेसु रसेसु तह य फासेसु । न वि रज्जइ न वि दुस्सइ, एसा खलु इंदि अप्पणिही। उसी का इन्द्रिय-निग्रह प्रशस्त होता है, जो शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श में जिसका मन न तो अनुरक्त होता है तथा न द्वेष करता है। -दशवैकालिक नियुक्ति ( २६५) ६८ ] ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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