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________________ अप्पाणं हवइ सम्मत्तं निश्चय दृष्टि से आत्मा ही सम्यक्त्व है । -दर्शनपाहुड़ (२) णिच्छयणयस्स एवं आदा अप्पाणमेवहि करोदि। वेदयदि पुणो तं चेव जाण अत्ता दु अत्ताणं ॥ निश्चय दृष्टि से तो आत्मा अपने को ही करता है और अपने को ही भोगता है। -समयसार (८३) अण्णाण मओ जीवो कम्माणं कारणो होदि । अज्ञानी आत्मा ही कर्मों का कर्ता होता है । -समयसार (६२) जं कुणदि सम्मदिट्ठी, तं सव्वं णिजरणिमित्तं । सम्यग्दृष्टि आत्मा जो कुछ भी करता है, वह उसके कर्मों को निर्जरा के लिए ही होता है । -समयसार (१९३) आदा खु मज्झमाणं, आदा मे दंसणं चरित्तं च । मेरी अपनी आत्मा ही ज्ञान है, दर्शन है और चारित्र है । --समयसार (२७७) कह सो धिप्पई अप्पा ? पण्णाए सो उ धिप्पए अप्पा । यह आत्मा किस तरह जाना जा सकता है ? यह आत्मा भेद-विज्ञान-रूप बुद्धि से ही जाना जा सकता है । -समयसार ( २६६) अस्थि मे आया उववाइए। मेरा आत्मा औपपातिक है, कर्मानुसार जन्मान्तर में संक्रमण करनेवाला है। -आचारांग (१११/१/५) [ ६३ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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