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________________ आलंबणंच मे आदा मेरा आत्मा ही मेरा आलम्बन है । --नियमसार (६६) जो झायइ अप्पाणं, परमसमाही हवे तस्स । जो अपनी आत्मा का एकमात्र ध्यान करता है, वह परमसमाधि का अधिकारी होता है। __-नियमसार ( १२३) अप्पा खलु सययं रक्खियचो, सविदिएहिं सुसमाहिएहिं । अरक्खिओ जाइपहं उवेइ, सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुच्चइ ॥ सब इन्द्रियों को सुसमाहित कर आत्मा की सतत रक्षा करनी चाहिए । अरक्षित आत्मा जाति-पथ (जन्म-मरण ) को प्राप्त होता है और सुरक्षित आत्मा सब दुःखों से मुक्त हो जाता है । -दशवैकालिक-चूलिका (२/१६ ) चित्तं तिकालविसयं । आत्मा की चेतना-शक्ति त्रिकाल है ।। -दशवैकालिक-नियुक्तिभाष्य (१६) णिच्चो अविणासि सासओ जीवो। आत्मा नित्य है, वह अविनाशी है तथा शाश्वत है । _ -दशवैकालिक-नियुक्तिभाष्य (४२) अणिदिय गुणं जीवं दुन्नेयं मंसचक्खुणा । आत्मा के गुण अनिन्द्रिय-अमूर्त हैं। इसीलिए इसे इन चर्मचक्षुओं से देख पाना कठिन है। –दशवैकालिक-नियुक्तिभाष्य (३४) हेउ प्पभवो बन्धो। आत्मा को कर्म का बन्ध मिथ्यात्व आदि हेतुओं से होता है । -दशवकालिक-नियुक्तिभाष्य (४६) ६२ ] Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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