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________________ अस्पृश्यता जं इच्छसि अप्पणत्तो, तं इच्छस्सपरस्सवि । जो स्वयं के लिए चाहते हो, उसे दूसरों के लिए भी चाहो । -बृहत्कल्पभाष्य (४५८४) जे माहणे जातिए खत्तिए वा, तह उग्गपुत्ते तह लेच्छतीवा । जे पन्चइते परदत्तभोई, गोत्ते ण जे थब्भति माणबद्ध ॥ . जो कोई मनुष्य भिक्षु होने से पूर्व चाहे ब्राह्मणवंशी हो, क्षत्रियवंशी हो, उग्रवंशी हो या लिच्छवीवंशी हो, लेकिन भिक्षु हो जाने पर जाति आदि की ऊँच-नीचता के मद में वह बंधा न रहे । --सूत्रकृताङ्ग ( १/१३/१०) सव्वगोत्तावगता महेसी, उच्च अगोत्तं च गतिं वयंति । महर्षिगण तो सब प्रकार के गोत्रों से रहित होते हैं। वे ही गोत्रादि से रहित सर्वोच्च मोक्ष-गति को प्राप्त करते हैं । -सूत्रकृताङ्ग ( १/१३/१६) से असइ उच्चागोए असईनीआगोए, नो हीणे नो अइरित्ते। यह आत्मा अनेक बार उच्च गोत्र में जन्म ले चुका है और अनेक बार नीच गोत्र में । इसमें किसी प्रकार की विशेषता या हीनता नहीं है। अतः न कोई हीन है और न कोई अतिरिक्त । -आचाराङ्ग ( १/२/३/१) एक्कु करे मं विण्णिकरि, मं करि वण्ण विसेसु । इक्क देवइ जे वसइ, तिहुयणु एहु असेसु ॥ हे जीव ! तूं जाति की अपेक्षा सभी जीवों को एक समान समझ । उनसे राग और द्वेष मत कर । त्रिलोकवर्ती सकल जीव-राशि शुद्धात्मस्वरूप होने के कारण समान है। --परमात्मप्रकाश ( २/१०७) ३४ ] Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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