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________________ वेया अहीया न भवन्ति ताणं । वेद पढ़ने पर भी वे त्राण नहीं होते । -उत्तराध्ययन (१४/१२) दाराणि य सुया चेव, मित्ता य तह बन्धवा। जीवन्तमणुजीवन्ति, मयं नाणुव्वयन्ति य॥ स्त्री, पुत्र, मित्र और बन्धुजन जीवित व्यक्ति के साथ जीते हैं, किन्तु वे मृत के पीछे नहीं जाते । -उत्तराध्ययन (१८/१४) माणुसत्ते असारम्मि, वाहीरोगाण आलए । जरामरणघथम्मि, खणं पि न रमामऽहं ॥ साधक सदा यह विचार करता रहे, 'यह मानव-शरीर असार है, व्याधि और रोगों का घर है, जरा और मरण से ग्रस्त है। अतः मैं इसमें रहकर एक क्षण भी मौज-शौक में रमण नहीं करूँगा ।' आत्म-अभ्युदय ही मेरा ध्येय है। --उत्तराध्ययन (१६/१४) असंयम ण हु होतिसोयिन्वो, जो कालगतो दढ़ो चरित्तम्मि । सो होइ सोयियव्वो, जो संजम-दुब्बलो विहरे । यह सोचनीय नहीं है, जो अपनी साधना में दृढ़ रहता हुआ मृत्यु को प्राप्त कर गया है। सोचनीय तो वह है, जो संयम से भूष्ट होकर जीवित घूमताफिरता है। -निशीथ-भाष्य (१७/१७) भावे असंजमो सत्थं । भाव-दृष्टि से असंयम ही शस्त्र है । -आचारांगनियुक्ति (६६) [ ३३ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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