SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ माणुस्सया काया अणितिया । यह मनुष्य शरीर और ये कामभोग अस्थिर हैं । जहा जाएणं अबस्स मरियव्वं । जो जन्मा है, उसे अवश्य मरना होगा । -- अन्तकृद्दशांग ( ३/८/१६ ) -अन्तकृद्दशांग ( ६ / १५/१८) जहा, दुमपत्तए पण्डुयए निवडइ राइगणाण अच्चए । एवं मणुयाण जीवियं । रात्रियाँ बीतने पर वृक्ष का पका हुआ पत्ता जिस प्रकार अपने आप गिर जाता है, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन एक दिन समाप्त हो जाता है । - उत्तराध्ययन ( १० / १ ) कुसग्गे जह ओसबिन्दुए, थोवं चिट्ठइ लम्बमाणए । एवं मणुयाण जीवियं ॥ कुश की नोक पर स्थित ओसबिन्दु की अवधि जैसे थोड़ी होती है, वैसे हो मनुष्य जीवन की गति है । जीव - लोक अनित्य है । अनित्यता Jain Education International 2010_03 अणिच्चे जीवलोगम्मि । - - उत्तराध्ययन ( १० / २ ) - उत्तराध्ययन ( १८/११ ) जीवियं चैव रूवं च विज्जुसंपाय चंचलं । -यह जीवन और सौन्दर्य बिजली की चमक के समान चंचल है । - उत्तराध्ययन ( १८/१३ ) [ For Private & Personal Use Only १५ www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy