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________________ देहे समाहरे | जहा कुम्मे सअंगाई, सए एवं पावाईं मेहावी, अज्झप्पेण समाहरे || जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने शरीर में समेट लेता है, वैसे ही मेधावी पुरुष पापों को अध्यात्म के द्वारा समेट लेता है । - सूत्रकृताङ्ग (१/८/१/१६ ) जो अपने मत की प्रशंसा और दूसरों के मत की निन्दा करने में ही अपना पाण्डित्य दिखाते हैं तथा तथ्य का अर्थात् सत्य का विलोपन करते हैं, वे एकान्तवादी स्वयं ही विश्व चक्र में भटकते रहते हैं । १० अध्यात्म सयं सयं पसंसंता, गरहतां परं वयं । जे उ तत्थ विउस्सन्ति, संसारं ते विउस्सिया || सव्वेवि होंति सुद्धा, नत्थि असुद्धो नयो उ सभी नय अपने-अपने स्थान पर शुद्ध हैं, अशुद्ध नहीं है । -सूत्रकृताङ्ग ( १/१/२/२३ ) णोच्छायए णो वि य लूसएजा, माणं ण सेवेज पगालणंच | ण यावि पन्ने परिहास कुजा, ण यासियावाय वियागरेजा ॥ अनाग्रही पुरुष न तो सूत्र के अर्थ को छिपाता है, और न स्व-पक्ष पोषणार्थं उसका अन्यथा कथन करता है । वह अन्य के गुणों को न तो छिपाता है और न ही अपने गुणों का गर्व करके अपनी महत्ता का बखान करता है । स्वयं को प्रज्ञावन्त जानकर वह अन्य का उपहास नहीं गौरव जताने के लिए किसी को आशीर्वाद देता है करता और न ही अपना । ] अनाग्रह Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only - सूत्रकृताङ्ग ( १४ / १६ ) सट्ठाणे । कोई भी नय अपने स्थान पर -व्यवहारभाष्यपीठिका (४७) www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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