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________________ झच्छर-डमरुक-भेरी-ढक्का-जीमूत-गफिर-घोसा वि। वम्ह-नियोजतमप्म जस्स न दोलयन्ति सो धो॥ झच्छर ( अडाउज), डमरुक, भेरी ( दुन्दुभि ) तथा ढक्का (नगाड़ा) के मेघ के सदृश गम्भीर घोष भी ब्रह्म में लीन जिस आत्मा को विचलित नहीं करते हैं, वही उत्कृष्ट योगी है। -कुमारपाल-चरित्र (८/१३) राग रत्तो बंधदि कम्म, मुञ्चदि कम्मेहि रागरहिदप्पा। रागयुक्त ही कर्मबन्ध करता है। रागरहित आत्मा कर्मों से मुक्त होती है । -प्रवचनसार ( २/८७) णिब्बुदिकामो राग सम्वत्थ कुणदि मा किंचि । मोक्षाभिलाषी को तनिक भी राग नहीं करना चाहिये । -पंचास्तिकाय ( १७२) राग-द्वेष कायसा वयसा मत्ते, वित्ते गिद्ध य इथिसु । दुहओ मलं संचिणइ, सिसुणागु ब्व मट्टियं ॥ जो मनुष्य शरीर एवं वाणी से मत होता है तथा धन और स्त्रियों में गृद्ध होता है। वह राग और द्वेष-दोनों से कर्म-मल का संचय करता है, जिस प्रकार शिशुनाग ( अलस या केंचुआ ) मुख और शरीर दोनों से मिट्टी का संचय करता है। __ -उत्तराध्ययन (५/१०) रागो य दोसो वि य कम्मबीयं । राग और द्वेष कर्म के बीज हैं, मूल कारण हैं । -उत्तराध्ययन (३२/७) [ २३१ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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