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________________ यतनापूर्वक चलने से, यतनापूर्वक बैठने से, यतनापूर्वक सोने से, यतनापूर्वक खाने से, यतनापूर्वक बोलने से पाप-कर्म का बन्ध नहीं होता। -दशवकालिक (४/८) जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स । सा होइ निज्जरफला, अज्झत्थ विसोहिजुत्तस्स ॥ जो यत्नवान साधक अन्तर विशुद्धि से युक्त है और आगमविधि के अनुसार आचरण करता है, उसके द्वारा होनेवाली हिंसा भी कर्म-निर्जरा का कारण है। -ओघनियुक्ति ( ७५६) अणुवओगो दव्वं । उपयोगशन्य साधना द्रव्य है, भाव नहीं। -अनुयोगद्वारसूत्र (१३) उवउत्तो जयमाणो, आया सामाइयं होइ। यतनापूर्वक साधना में यत्नशील रहनेवाली आत्मा को सामायिक होती है । - आवश्यकनियुक्ति-भाष्य ( १४६ ) खिप्पं न सक्केइ विवेगमेउं । विवेक को कोई भी तत्काल नहीं प्राप्त कर सकता । -उत्तराध्ययन (४/१०) योगी वन्थू सठासठेसु वि आलम्पित-उपसमो अनालम्फो । सव्वा -लाच-चलने अनुझायन्तो हवति योगी । शठों ( मायावियों, धूर्तों ) तथा अशठों में भी बान्धसदृश, उपशम (शान्त ) भाव का आश्रय लेनेवाला और अनारम्भ ( दोषरहित आचरण) वाला सर्वज्ञ के चरणों का ध्यान करता हुआ योगी होता है । -कुमारपाल-चरित्र (८/१२) २३० ] Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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