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________________ पणठ्ठसंसारा । अट्ठविहकम्मवियला, णिट्ठियकज्जा दिट्ठसयलत्थसारा, सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥ अष्ट कर्मों से रहित, कृतकृत्य, जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त तथा सकल तत्त्वार्थो के द्रष्टा सिद्ध मुझे सिद्धि प्रदान करें । कम्ममलचिप्पमुको उडुं लोगस्स सो सव्वणादरिसी, लहदि अंतमधिगंता । मुहमणिदियमणंतं ॥ कर्म मल से मुक्त आत्मा ऊर्ध्वलोक के अन्त को प्राप्त करके सर्वज्ञ सर्वदश अनन्त अनिन्द्रिय सुख का अनुभव करता है । -- पंचास्तिकाय ( २८ जत्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का | वि लोगंते ॥ -तिलोयपण्णति ( १/१ ) मुक्त अन्नोन्नसमोगाढा, पुट्ठा सव्वे लोक- शिखर पर जहाँ एक सिद्ध या मुक्तात्मा स्थित होती है, वहीं एकदूसरे में प्रवेश पाकर संसार से मुक्त हो जानेवाली अनन्त सिद्धात्माएँ स्थित हो जाती हैं, जो लोकाकाश के ऊपरी अंतिम छोर को स्पर्श करते हैं । - विशेषावश्यक भाष्य ( ३१७६ ) जाबद्धम्मं दव्वं, तावं गंतूण लोयसिहरम्मि । चेति सव्चसिद्धा, पुह पुह गयसित्थमूसगग्भणिहा || लोक के शिखर पर जहाँ तक धर्म द्रव्य की सभी मुक्त जीव पृथक्-पृथक् स्थित हो जाते हैं । मूषक के आभ्यान्तर आकाश की भाँति अथवा शरीर वाला तथा अमूर्तिक होता है । Jain Education International 2010_03 सीमा है वहाँ तक जाकर उनका आकार मोम रहित घटाकाश की भाँति चरम तिलोयपण्णत्ति ( ६ / १६ ) जहा दड्ढाणं बीयाणं, न जायंति पुर्णकुरा । कम्मबीयेसु दड्ढेसु, न जायंति भवांकुरा ॥ जिस प्रकार बीज दग्ध हो जाने पर फिर अंकुर उत्पन्न नहीं होते हैं, [ २२१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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