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________________ पाखंडीलिंगाणि व, गिहिलिंगाणि व बहुप्पयाराणि । लिंगमिणं मोक्खमग्गोत्ति ॥ घित्तुं वदंति मूढा, लोक में साधुओं तथा गृहस्थों के तरह-तरह के लिंग प्रचलित हैं, उन्हें धारण करके मृढ़जन ऐसा कहते हैं कि अमुक लिंग (चिह्न) मोक्ष का कारण है । जत्तत्थं गहणत्थं च, लोगे लिंग पओयणं संयम - यात्रा के निर्वाह के लिए और 'मैं साधु हूँ' इसका बोध रहने के लिए ही लोक में लिंग का प्रयोजन है । - उत्तराध्ययन ( २३ / ३२ ) मिच्छत्तपरिणदप्पा, तिव्व कसाएण सुट्टु आविट्ठो । जीवं देहं एक्कं मण्णंतो मिथ्यादृष्टि जीव तीव्र कषाय से पूरी तरह देह को एक मानता है । वह बहिरात्मा है । - समयसार (४०८ ) होदि बहिरप्पा ॥ आविष्ट होकर आत्मा और नवि तं करेइ अग्गी, नेव विसं जं कुणइ महादोसं, तिव्वं तीव्र मिथ्यात्वी जीव जितना अधिक महान् दोष करता है उतना दोषदुःख अग्नि विष और काला सर्प भी नहीं करता है । - संबोधसत्तरि ( ६५ ) -२२० ] - कार्तिकेयानुप्रेक्षा ( १६३ ) Jain Education International 2010_03 मिथ्यादृष्टि कुणमाणोऽवि निवित्ति परिच्चयं तोऽवि सयण - धण- भोए । दितोऽवि दुहस उरं, मिच्छदिट्ठी न सिज्झई उ । नेव किण्हलप्पो अ । जीवस्स मिच्छत्त ॥ कोई साधक निवृत्ति की साधना करता है, परिजन, धन, तथा भोगविलास को छोड़ देता है, और अनेक कष्टों को भी सहन करता है, परन्तु यदि वह मिथ्यादृष्टि हैं तो अपनी साधना में सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता । - आचारांग नियुक्ति ( २२० ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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