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________________ छन्नं धम्मं पडं च, पोरिसं परकलत्तवं चणयं । गंजणरहिओ जम्मो, राढ़ाइत्ताण संपडइ ॥ -ये धर्म, गुप्त व प्रकट पराक्रम, परस्त्री-त्याग और निष्कलंक - जन्म - भव्यात्माओं को ही प्राप्त होते हैं । - वजालग्ग (८८ / ० ," ) गुणहि न संपइ, कित्ति पर फल लिहिआ भुंजन्ति । केसरि न लहइ बोडिअ वि गय लक्खेहिं घेप्पन्ति || गुणों से केवल कीर्ति मिलती है, सम्पत्ति नहीं । फलों को भोगते हैं । सिंह गुण सम्पन्न होने पर भी बिकता जबकि हाथी लाखों में खरीदा जाता है । उअ कणिआरु पफुल्लिअउ गोरीवयण विणिज्जअउ जं खिले हुए कर्णिकार नामक वृक्ष को देखो प्रकाशित है तथा गौरी के मुख की आभा को फिर भी वह वनवास कर रहा है । ! भव्यात्मा Jain Education International 2010_03 मनुष्य भाग्य में लिखित एक कौड़ी में भी नहीं - प्राकृत-व्याकरण (४/३३५ ) कंणकं विपयासु । सेवइ वणवासु ॥ भाग्य जो स्वर्ण के समान कान्ति से जीतनेवाला है ; आश्चर्य है - प्राकृत - व्याकरण ( ४ / ३६६ ) भाव निच्चुण्णो तंबोलो, पासेण विणा न होइ जह रंगो । तह दाणसीलतवभावणाओ, अहलाओ सन्व भावं विणा ॥ For Private & Personal Use Only जिस प्रकार चुने कत्थे के बिना तांबूल-पान और पास - रहित वस्त्र अच्छी तरह से रंगा नहीं जा सकता, उसी प्रकार भावव-रहित दान, शील, तप, भावना भी निष्फल हैं । -भाव - कुलक (२) [ १६५ - www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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