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________________ णो पाणभोयणस्स अतिमत्तं आहारए सया भवई । ब्रह्मचारी को कभी भी अधिक मात्रा में भोजन नहीं करना चाहिए । सव्वंगं पेच्छंतो, इत्थीणं वा मुयदि सो बम्हचेरभाव, सुक्कदि खलु दुद्धरं स्त्रियों के सर्वाङ्गों को देखते हुए भी जो इनमें दुर्भाव विकार नहीं करता, वही वास्तव में दुर्द्धर ब्रह्मचर्य -भाव को धारण करता है । - बारस अणुवेक्खा ( ८० 50 ) मण पल्हायजणणी, काम राग विचड्ढणी । बंभचेररओ भिक्ख, थी कहं तु विवज्जए || -स्थानांग ( ६ ) ब्रह्मचर्य - परायण भिक्षु को स्त्रियों-सम्बन्धी ऐसी बातों का परित्याग ही कर देना चाहिए, जिनसे चित्त में गुदगुदी या आह्लाद उत्पन्न होता हो, विषयों का आनन्द जाग्रत होता हो और कामभोग में आसक्ति बढ़ती हो । - उत्तराध्ययन ( १६ / २ ) ब्रह्मचर्य - परायण भिक्षु स्त्रियों के परिचय और चीत के प्रसंगों को सदैव टालने का प्रयत्न करे । दुब्भावं । धरदि ॥ समं च संथवं थीहि संकहं च अभिक्खणं । बंभचेररओ भिक्खू, निच्चसो परिवज्जए ॥ उनके साथ बार-बार बात Jain Education International 2010_03 - उत्तराध्ययन ( १६ / ३ ) अंगपचचंग संठाणं, चारुल्लविय पेहियं । बंभचेररओ थीणं चक्खु गिज्झं विवज्जए || - ब्रह्मचर्य - परायण भिक्षु को स्त्रियों के अंग-प्रत्यंगों के आकार, स्त्रियों के प्रेमदर्शक वचनयुक्त हाव-भाव और कटाक्ष - जिनके देखने से विकार पैदा होते हैं—- देखने नहीं चाहिए । उस ओर आँख लगाना भी वर्जित कर देना चाहिए । For Private & Personal Use Only - उत्तराध्ययन ( १६ / ४ ) [ १८६ www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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