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________________ मूलमेयमहम्मस्स, महादोस समुस्सयं । तम्हा मेहुण संसग्गं, निग्गंथा वजयन्तिणं ॥ संयमघातक दोषों का त्याग करनेवाले मुनिजन, दुनिया में रहते हुए भी महाभयंकर प्रमादरूप और दुःख का कारण अब्रह्मचर्य का आचरण नहीं करते। मुनि-साधक अब्रह्मचर्य यानि मैथुन-संसर्ग का सर्वथा त्याग करते हैं, क्योंकि यह अधर्म का मूल ही नहीं, अपितु बड़े से बड़े दोषों का भी स्थान है। -दशवकालिक (६/१५/१६) विभूसा इत्थिसंसग्गो, पणीयं रसभोयणं । नरस्सऽत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ।। जो मनुष्य अपना चित्त शुद्ध करने, स्वरूप की शोध करने के लिए तत्पर है, उसके लिए शरीर के शृगार तालपुट जहर जैसे ही भयंकर हैं, जिसके खाते ही प्राण छूट जाते हैं । स्त्रियों का संसर्ग भी विषवत है। इतना ही नहीं, स्वादु तथा सरसभोजन आदि का अति सेवन भी विष जैसा हो हानिकारक है। -दशवैकालिक (८/५७) जीवो बंभा जीवम्मि चेव चरिया हविज्ज जा जदियो तं जाण बंभचेरं। आत्मा ही ब्रह्म है और आत्मा में चरण अर्थात् रमण करना ही ब्रह्मचर्य है । -भगवती-आराधना (८७८) अवि य वहो जीवाणं मेहुण सेवाए होइ बहुगाणं । मैथुन-सेवन करने से मनुष्य अनेक जीवों का वध करता है । __ -भगवती-आराधना (६२२) जो देइ कणय कोडिं, अहवा कारेइ कणयजिण भवणं । तस्स न तत्तिय पुन्न, जत्तिय बंभवए धरिए । यदि कोई मनुष्य करोड़ों रुपयों के मूल्य का स्वर्ण याचकों को दान में देता है अथवा स्वर्णमय जिन मंदिर का निर्माण करता है, उसे उतना पुण्य नहीं होता जितना कि ब्रह्मचर्य-व्रत धारण करने से होता है । -संबोधसत्तरि (५६) १८८ ] ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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