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________________ कम्मसंगेहि सम्मूढा, दुक्खिया बहुवेयणा । अमाणुसासु जोणीसु, विविहम्मन्ति पाणिणो ॥ पुनः पुनः पापमय प्रवृत्ति करते-करते विशेष मृढ़, दुःखी और अत्यन्त वेदना भोगनेवाले प्राणी मनुष्येतर योनियों में जन्म ले लेकर संसार - परिभ्रमण करते रहते हैं । तेणे जहा संधिमुहे गहीए, सकम्मुणा किच्च पावकारी । एवं पया पेच्च इलं व लोए । जैसे चोर सेंध लगाते हुए पकड़े जाने पर अपने ही दुष्कर्म से अपराधी कर दंडित होता है, वैसे ही पाप करनेवाला प्राणी भी इस लोक तथा परलोक भयंकर दुःख पाता है । रागे. दोसे य दो पावे, पावकम्म पवत्तणे | पाप कर्म के प्रवर्तक राग और द्वेष—ये ही दो पाप हैं । - उत्तराध्ययन (४/३ ) १६८ ] - उत्तराध्ययन ( ३१/३ ) सम्मत्तं निच्चलं तं वयाण परिपालणं अमायत्तं । पढयं गुणणं विणओ, जन्भंति पभूयपुण्णेहिं ॥ सम्यक्त्व में निश्चलता व्रतों-नियमों का परिपालन, निर्मायीपन, पढ़ना, गुनना और विनय – ये सब महापुण्य के योग से ही प्राप्त होते हैं । Jain Education International 2010_03 समत्तेण सुदेव य विरदीप कसायणिग्गहगुणेहिं जो परिणदो सो पुण्णो । पुण्य सम्यक्त्व, श्रुतज्ञान, व्रतरूप परिणाम तथा कषाय- निग्रह रूप गुणों से परिणत आत्मा पुण्य-पुरुष है । - मूलाचार ( २३४ ) - पुण्यकुलकम् ( ४ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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