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________________ निर्लोम विणइत्तु लोभं निक्खम्म, एस अकम्मे जाणति पासति । जो लोभ को छोड़कर निष्क्रमण करता है, वह बन्धन-मुक्त होकर सब का ज्ञाता/द्रष्टा हो जाता है। -आचारांग ( १/२/२) लोभं अलोभेण दुगंछमाणे, लद्ध कामे नाभिगाहइ ॥ जो पुरुष अलोभ से लोभ को पराजित कर देता है, वह प्राप्त कामों का सेवन नहीं करता। -आचारांग ( १/२/२) दीसन्ति खमावन्ता, नीहंकारा पुणो वि दीसन्ति । निल्लोहा पुण विरला, दीसन्ति न चेव दीसन्ति ॥ दयालु देखे जाते हैं और अहंकार-रहित भी देखे जाते हैं, किन्तु इस संसार में लोभ-रहित विरले ही देखे जाते हैं और नहीं भी देखे जाते हैं। -कामघट-कथानक (७१) परानुपजीवी पुष्वपुरिसज्जियाई धणाई विहवइ को न इच्छाए । जे समज्जिय भुंजन्ति, हुन्ति ते उत्तमा केवि ॥ पूर्वज व्यक्तियों के द्वारा कमाये हुए धन आदि को कौन व्यक्ति इच्छा से खर्च नहीं करता है ? किन्तु जो स्वयं के द्वारा अर्जित धन का उपभोग करते है, वे उत्तम पुरुष कोई विरले ही होते हैं । -पाइअकहासंगहो ( २४) परिणाम परिणामादो बंधो परिणामो रागदोसमोहजुदो। [ १६५ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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