SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्गुण गुणहीणा जे पुरिसा कुलेण गवं वहन्ति ते मूढ़ा। वंसुप्पन्नो वि धणु गुण रहिए नत्थि टंकारो। जो पुरुष गुणहीन हैं, वे मुढ़ केवल कुल-कारण गर्व धारण करते हैं। ठीक ही है, बांस से उत्पन्न धनुष भी रस्सी-गुण से रहित होने पर टंकारवाला नहीं होता है। -~-वज्जालग्ग (७६/२) निर्मोही णिस्सेसखीण मोहो, फलिहामलभायणुदय-समचित्तो। जिसने सम्पूर्ण मोह को पूरी तरह से नष्ट कर दिया है, उस निर्मोही का चित्त स्फटिक मणि के पात्र में रखे हुए स्वच्छ जल की भाँति निर्मल हो जाता है। ___-पञ्चसंग्रह (१/१५) लोभो मुत्तीए य भाविओ भवति अंतरप्पा संजयकरचरणनयणवयणो सूरो सच्चज्जवसंपन्नो॥ लोभ-संयम रूप निर्लोभता की भावना से भावित अन्तरात्मा अपने हाथ, पैर, आँख और मुँह पर संयमशील बनकर धर्मवीर तथा सत्यता और सरलता से सम्पन्न हो जाता है। -प्रश्नव्याकरण (२२) सकदकफलजलंवा, सरए सरवाणियं वणिम्मलयं । सयलोवसंतमोहो, उवसंतकसायओ होदि ॥ जैसे निर्मली-फल से युक्त जल अथवा शरदकालीन सरोवर का जल निर्मल होता है वैसे ही जिनका सम्पूर्ण मोह उपशान्त हो गया है, वे निर्मल परिणामी 'उपशान्त-कषाय' कहलाते हैं । -गोम्मटसार-जीवकाण्ड (६१) ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy