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________________ जहा सुणी पूईक्कण्णी, निक्कसिज्जइ सव्वसो। एवं दुस्सील पडिणीए, मुहरी निक्कसिज्जई ॥ जिस प्रकार सड़े हुए कानों वाली कुतिया जहाँ भी जाती है, सर्वत्र निकाल दी जाती है, उसी प्रकार दुःशील, उदंड और वाचाल व्यक्ति भी सर्वत्र धक्के देकर निकाल दिया जाता है । -उत्तराध्ययन (१/७) चीराजिणं नगिणिणं, जडिसंघाडि मुंडिणं । एयाणि वि न तायन्ति, दुस्सीलं परियागयं ॥ मृगचर्म, नग्नता, जटा, संघारिका' और शिरोमुंडन ये कोई भी धर्मचिह्न आचारहीन साधक की रक्षा नहीं कर सकते, उसके अनाचार को ढंक नहीं सकते। अनाचारी वृत्ति का मनुष्य भले ही मृगचर्म पहने, नग्न रहे, जटा बढ़ाये, संघारिका ओढ़े अथवा सिर मुंडा ले, तो भी वह सदाचारी नहीं बन सकता। -उत्तराध्ययन (५/२१) न तं अरी कंठछेत्ता करेइ, जं से करे अप्पाणिया दुरप्पा। से नाहिह मच्चुमुहं तु पत्ते, पच्छाणु तावेण दयाविहूणो । सिर काटनेवाला शत्रु भी उतना अपकार नहीं करता, जितना कि दुराचरण में प्रवृत्त अपनी आत्मा करती है। दया-शन्य अनाचारी को अपने असदाचार का पहले ध्यान नहीं आता, परंतु जब वह मृत्यु के मुख में पहुँचता है तो अपने सब दुराचरणों का स्मरण करते हुए पछताता है । -उत्तराध्ययन ( २०/४८) निच्चुग्विग्गो जहा तेणो, अत्तकम्मेहिं दुम्मई । तारिसो मरणंतेऽवि, नाऽऽराहेइ संवरं ।। नित्य भयाक्रान्त चोर जैसे अपने ही दुष्कर्मों के कारण दुःख प्राप्त करता है वैसे ही अज्ञजन भी अपने बुरे आचरण के कारण दुःख की भूमिका को प्राप्त करते हैं और अंतकाल में भी वह संयम-धर्म की आराधना नहीं कर पाता । -दशवैकालिक (५/२/३६) । १४१ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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