SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जम्मं दुक्खं, जरा दुक्खं, रोगाय मरणायि य। अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति जंतवो॥ जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग और मरण दुःख है। अहो ! संसार दुःख ही है, जिसमें जीव क्लेश पा रहे हैं । -उत्तराध्ययन (१८/१६) अणिद्वत्थसमागमो इट्टत्थ वियोगो च दुःखं णाम । अनिष्ट अर्थ के समागम और इष्ट अर्थ के वियोग का नाम दुःख है । -धवला (१३/५,५.६३/३३४/५) सारीरिय-दुक्खादो माणस-दुक्खं हवेइ अइपउरं । माणस-दुक्ख-जुदस्स हि विसया वि दुहावहा हुंति ॥ शारीरिक दुःख से मानसिक दुख बड़ा होता है, क्योंकि जिसका मन दुःखी है, उसे विषय भी दुःखदायक प्रतीत होते हैं । -कार्तिकेयानुप्रेक्षा (६०) कह तं भण्णइ सुक्खं, सुचिरेण वि जस्स दुक्खमल्लि हियए । वह सुख, सुख नहीं है, जो अन्त में दुःख रूप में परिणत हो जाये। -सार्थपोसहसज्झायसूत्र (२६) नरविवहेसुरसुक्खं, दुक्खं परमत्थओ तयं बिति । परिणामदारुणमसासयं, च जं ता अलं तेण ॥ नरेन्द्र-सुरेन्द्रादि का सुख परमार्थतः दुःख ही है। वह है तो क्षणिक किन्तु उसका परिणाम दारुण होता है । अतः उससे दूर रहना ही उचित है । -भक्त-परिज्ञा (५) दुराचार कुसीलो, न चल्लहो होइ लोयाणं ॥ कुशील व्यक्ति लोकप्रिय कदापि नहीं हो सकता। • -शील-कुलकम् (१७) २४.. ] Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy