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________________ सिद्ध नहीं होती। फलतः गुरु के उपदेशों का अवलम्बन करना नितान्त जरूरी है। -सार्थपोसहसज्झाय सूत्र (२५) हत्था ते सुकयत्था, जे किई कम्म कुणंति तुह चलणे। वाणी बहुगुणखाणी, सुगुरुगुणा वण्णिआ जीए॥ वह हाथ कृतार्थ है, जिसने सद्गुरु के चरणों में वन्दन या स्पर्श किया है, वह वाणी ( जिह्वा) बहुगुण सम्पन्न है, जिसने सद्गुरु के गुणों का वर्णन किया है। -गुरुप्रदक्षिणाकुलकम् (४) दुल्लहो जिणिदधम्मो, दुल्लहो जीवाणं माणुसो जम्मो । लद्धणि मणुअजम्मे, अइदुल्लहा सुगुरुसामग्गी ॥ जीवों को सर्वज्ञ द्वारा भाषित धर्म प्राप्त करना दुर्लभ है, मनुष्य जन्म प्राप्त होना दुर्लभ है, परन्तु मनुष्य जन्म मिलने पर भी सद्गुरु रूप सामग्री प्राप्त होनी अति दुर्लभ है । -~-गुरुप्रदक्षिणाकुलकम् (६) जत्थ न दीसंति गुरु, पच्चूसे उढिएहिं सुपसन्ना । तत्थ कहं जाणिज्जइ, जिणवयणं अभिअसारिच्छं ॥ जहाँ प्रभात में जागते ही सुप्रशन्न गुरु के दर्शन नहीं होते, वहाँ अमृत सदृश सवचन-लाभ किस तरह हो सकता है ? __ -गुरुप्रदक्षिणाकुलकम् (१०) गुरुकुलवासी नाणस्स होइ भागी, थिरयरओ दंसणे चरित्ते य। धन्ना गुरुकुलवासं, आवकहाए न मुंचंति ॥ गुरुकुल-स्थित साधु ज्ञान का भागी-अधिकारी होता है, दर्शन एवं [ १०७ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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