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________________ ६४ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । - मीमांसक कुमारिलकी तरह, बौद्ध तार्किक शान्तिरक्षित भी बौद्ध दर्शनके बडे समर्थक विद्वानोंमें गिने जाते हैं । उन्होंने 'तत्त्वसंग्रह' नामक विशालपरिमाण ग्रन्थकी रचना की जिसमें दार्शनिक विषयके सभी मुख्य मुख्य सिद्धान्तों की चर्चा ग्रथित है। इसमें बौद्ध सम्मत प्रमेयोंकी सिद्धिके साथ अन्य दार्शनिकों द्वारा किये गये आक्षेपोंका निरसन किया और साथहीमें अन्य दार्शनिकों के कुछ विशिष्ट मन्तव्यों पर आक्षेप भी किये । इनमें जैनदर्शनसम्मत 'स्याद्वाद' सिद्धान्तका भी समावेश है । जैनोंका 'स्याद्वाद' अर्थात् 'अनेकान्तवाद' भी अन्यान्य वादोंकी तरह दोषदूषित है - इस विषयमें जो तर्क-वितर्क उन्होंने किये हैं, खास करके उनका प्रत्युत्तर देनेका प्रयत्न जिनेश्वर सूरिने अपने इस ग्रन्थमें किया है । शान्तिरक्षितने 'स्याद्वादसिद्धिभंग' नामक प्रकरणमें जैनके अनेकान्तवादकी बडी कर्कश मीमांसा की है, इसलिये जिनेश्वर सूरिने उसका उत्तर भी उसी शैलीमें देनेका प्रयत्न किया है। कहा है कि तत्रैकाल्यपरीक्षार्थ मुधैवारटितं त्वया । स्याद्वादसिद्धिभङ्गोऽपि तवोन्मादानुमापकः ॥ १८६ अर्थात् -हे शान्तिरक्षित ! त्रैकाल्यपरीक्षाके विषयमें जो तेंने चिल्लाहट की है वह व्यर्थ ही है; और इसी तरह 'स्याद्वाद'की सिद्धिका भङ्ग करनेका जो प्रयत्न किया है वह भी तेरे उन्मादका ज्ञापक है, और कुछ नहीं है। आगम अर्थात् शब्द प्रमाणके प्रामाण्य-अप्रामाण्य वाद की यह चर्चा, केवल दर्शनान्तरोंके बीचका ही विषय नहीं बन रही, लेकिन एक ही दर्शनके अवान्तर संप्रदायोंके बीचमें भी उसका वैसा ही क्षेत्र बन रहा है। क्या वैदिक, क्या बौद्ध और क्या जैन - इन तीनों मतोंके जो अवान्तर उपसंप्रदाय हैं वे भी परस्पर अपने-अपने मन्तव्योंके लिये इसी आगम प्रमाणको उपस्थित कर वाद-प्रतिवाद करते रहे हैं। जैनदर्शनके 'स्याद्वाद'मतके अनुगामी और उपस्थापक ऐसे श्वेतांबर एवं दिगंबर संप्रदाय भी इस आगम प्रमाणको लेकर परस्पर खण्डन-मण्डनमें यथेच्छ प्रवृत्त रहे हैं । इन दोनों संप्रदायोंके बीचमें जो मुख्य मन्तव्यभेद है, वह एक इस विषयको लेकरके है कि-जो गृहत्यागी मोक्षाभिलाषी मुनि बनता है उसको वस्त्रपरिधान करना जैन आगममें विहित है या नहीं । श्वेताम्बर संप्रदाय - जैसा कि उसके नामसे ही प्रतीत होता है - मुनिको अपने संयमकी रक्षाके लिये अल्प-खल्प श्वेतवस्त्र परिधान करना आगमविहित मानता है और उसके समर्थक प्रमाण खमान्य आगमग्रंथोंसे उपस्थित करता है । इसके विपरीत दिगंबर संप्रदाय-जो कि उसका नाम ही ज्ञात कराता है -मुनिको अल्प-खल्प भी वस्त्र रखना आगमविरुद्ध मानता है और मोक्षमार्गका बाधक बतलाता है । श्वेताम्बर पक्षवाले अपने मन्तव्यके आधारभूत जिस आगमका प्रमाण प्रस्तुत करते हैं, उस आगमका दिगम्बरपक्ष अनागमत्व सिद्ध करनेका प्रयत्न करता है। दार्शनिक विषयोंके तत्त्वविचारकी मीमांसाकी दृष्टिसे दिगम्बर विद्वानोंने जो प्रमाणविषयक कुछ ग्रन्थ लिखे उनमें श्वेतांबर मान्यताका भी आगमविरुद्ध होना निर्दिष्ट किया और उसके समर्थनमें प्रमाणशास्त्र सम्मत हेतुवादके प्रयोगोंका उपयोग किया । जिनेश्वर सूरिने भी अपने इस प्रन्थमें-आगमप्रमाणवाले प्रकरणमें - निम्रन्थताके पक्ष-विपक्षमें जो दिगम्बर मन्तव्य है उसका प्रतिवाद किया और अपना पक्ष सिद्ध करनेका प्रयास किया। जिनेश्वर सूरिका कथन है कि-जैन आगममें जो कोई भी विधि प्रतिपादित किया गया है उसका अर्थ देश, काल, बल और सूत्रकी अपेक्षाको लक्ष्यमें रख कर करना चाहिये । उस अर्थका जो उल्लंघन करता है वह जिनदेवकी आशातना (अपभ्राजना) करनेवाला अतएव पाप पुरुष है । यथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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