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________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन । वेदके अपौरुषेयस्व, अनादित्व और आगमत्वकी. सिद्धि करते हुए कुमारिलने खास करके जैनोंके सर्वज्ञवाद-केवलज्ञानकी भी मार्मिक आलोचना की है और उसमें यह स्थापित करनेका प्रयत्न किया, कि जैन जैसा कहते हैं वैसा सर्वज्ञ या केवलज्ञानी न कोई कभी कहीं हुआ है न हो सकता है । यदि कहा जाय कि जिन अर्थात् अर्हन् वैसे सर्वज्ञ थे, तो फिर बुद्ध और कपिल-जिनको कि तत्तदर्शन वाले वैसे सर्वज्ञ मानते हैं, सर्वज्ञ नहीं थे इसमें क्या प्रमाण है? | और यदि वे भी सर्वज्ञ थे, तो फिर उन सबके कथित सिद्धान्त परस्पर विरुद्ध कैसे? इसलिये न अर्हन् सर्वज्ञ थे, न बुद्ध और नाही कपिल । इस तरह सर्वज्ञका अभाव सिद्ध होने पर, उसका कहा हुआ वचन भी कैसे प्रमाणभूत आगम समझा जाय । इसलिये धर्माधर्मविषयक विचारमें अपौरुषेय वेद ही प्रमाणभूत आगम हो सकता है, अन्य नहीं । और इस अपौरुषेय वेदके धर्मविचारमें किसी प्रकारके सन्देह अथवा तर्कके करनेका कोई अवकाश नहीं। भट्ट कुमारिलने अपने सिद्धान्तका समर्थन करते हुए, जैन और बौद्ध तार्किकोंने वेदके विरुद्ध जो जो युक्तियां-प्रत्युक्तियां उपस्थित की थीं, उनका उत्तर देते हुए उन्होंने अन्तमें निम्न प्रकारसे बड़े कठोर शब्दोंमें इन वेदविरोधियोंकी अपभ्राजना भी की। धारणाध्ययनव्याख्यानित्यकर्माभियोगिभिः । मिथ्यात्वहेतुरक्षातो दूरस्थैर्शायते कथम् ॥ ये तु ब्रह्मद्विषः पापा वेदाद् दूरं बहिष्कृताः। ते वेदगुणदोषोक्तिं कथं जल्पन्त्यलजिताः॥ अर्थात् - जो ब्राह्मण वेदका धारण करते हैं, अध्ययन करते हैं, व्याख्यान करते हैं और उसमें प्रतिपादित नित्यकर्ममें अभियुक्त रहते हैं, उनको जब वेदके मिथ्यात्व होनेका कोई हेतु ज्ञात नहीं हुआ, तो फिर जो वेदसे दूर रहते हैं उनको वह कैसे ज्ञात हो सकता है ? । जो ब्रह्मद्वेषी होकर वेदसे दूर रहते हैं और वेदमार्गसे बहिष्कृत हैं वे पापात्मा लज्जाहीन होकर वेदके गुण-दोषकी उक्तियां कैसे बकते रहते हैं । . कुमारिलके इन आक्रोशयुक्त वचनोंका जिनेश्वर सूरिने निम्न प्रकार व्यङ्गयभरे शब्दों में उत्तर दिया धारणाध्ययनेत्यादि नाक्रोशः फलवानिह । अझैरशाततत्त्वोऽपि पण्डितैरवसीयते ॥ २४८ अर्थात् 'धारणाध्ययन' इत्यादि उक्तिद्वारा कुमारिलने जो आक्रोश प्रदर्शित किया है उसका, इस तत्त्वविचारमें कोई फल नहीं निकलता । तात्पर्य कि इस तत्त्वमीमांसामें निर्लज्ज, पापात्मा, ब्रह्मद्वेषी जैसे उद्गारोंका प्रयोग करनेसे किसी तत्त्वकी सिद्धि नहीं होती। और जो कुमारिल यह कहते हैं किवेदका नित्य गाढ परिचय रखनेवाले जब उसके मिथ्यात्वको जान नहीं सकते तो फिर जो ये उससे दूर रहनेवाले उसके जाननेका कैसे दावा कर सकते हैं । इसका उत्तर तो यह है कि - अज्ञजनों के लिये जो तस्व अज्ञात होता है उसको पण्डितजन तो अच्छी तरह जान सकते हैं, इसमें आश्चर्यकी बात क्या है ? । इस प्रकार कुमारिलके कथनोंका शंका-समाधान करते हुए जिनेश्वर सूरिने अन्तमें -प्रकरणके उपसंहारमें- इस प्रकारके कर्कश आक्षेपात्मक वचनोंके लिये, कुमारिल को भी फिर वैसे ही पाप शब्दसे संबोधित करके अपना रोष शान्त किया है । सन्दिग्धेऽपि धर्मशे भव्यजन्तोर्न कर्कशाः । अधिक्षेपस्य दायिन्यो वाचः पाप यथा तव ॥ २७३ जिनेश्वर सूरि कहते हैं कि - सर्वज्ञकी सत्ताके सन्दिग्ध होने पर भी, जो भव्यजन है उसके वैसे आक्षेपात्मक कर्कश वचन नहीं निकलते, जैसे हे पापिष्ठ कुमारिल ! तेरे निकले हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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