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________________ ५२ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । ऊधार द्रव्य नहीं देना चाहिये । चाहे थोडा लाभ हो परंतु सोना चांदी आदि वस्तुओंको बन्धकमें रख कर ही किसीको रुपये आदि देना चाहिये । इस प्रकार संक्षेपमें श्रावकको द्रव्योपार्जनके निमित्त किन चीजोंका और कैसे, व्यापार व्यवसाय करना चाहिये इसका उपदेश किया गया है । ___ श्रावकको सदैव अपने पिता, माता, भ्राता, भगिनी आदि खजनोंके मनोभावके अनुकूल वर्तन रखना चाहिये और उनको कौन व्यवहार प्रिय है तथा कौन अप्रिय है इसका खयाल रखकर उनके मनको सन्तुष्ट रखना चाहिये । साथ ही में उनको सत्य वस्तुका उपदेश दे कर उनके मनोभावको सत्यनिष्ठ बनाते रहना चाहिये । इसी तरह जो अपने अभिनव सहधर्मी भाई हैं उनके भी मनके प्रिय-अप्रियादि भावोंका लक्ष्य रखना चाहिये और जिस तरह उनका मन धर्ममें अनुरक्त और स्थिर रहे वैसा व्यवहार करना चाहिये । उनसे किसी प्रकारका लडाई-झगडा अथवा असभ्य भाषण आदि न करना चाहिये । चैत्यवन्दन, पूजा, प्रतिक्रमणादि धर्मक्रियाओंके करनेमें उनके मनमें विसंवादी भाव उत्पन्न हो वैसी कोई प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिये - बल्कि इन क्रियाओंके करनेमें उनका उत्साह बढता रहे वैसी ही प्रवृत्ति करनी चाहिये । __ छट्ठा प्रकरण 'प्रवचन कौशल' विषयक है जिसमें श्रावकको व्यवहार-कुशल होनेके बारेमें भी कुछ बातें कही हैं । इस व्यवहार-कुशलताके धर्म, अर्थ, काम और लोक ऐसे उपविभाग किये हैं। धर्मकौशल्यके विषयमें कहा है कि श्रावकको शाक्य, भौत, दिगम्बर, विप्रादि पाखंडियोंका संसर्ग नहीं रखना चाहिये; वैसे ही उन-उन मतवालोंके उपास्य देवताओंकी मूर्तियोंका क्रय-विक्रयादि भी नहीं करना चाहिये । चैत्यालय संबंधी जो द्रव्य हो उसको तथा साधारण द्रव्यको भी अपने लिये अंगऊधार नहीं लेना चाहिये, और इतना ही नहीं, परंतु जिन लोगोंने ऐसा द्रव्य ऋणके रूपमें लिया हो उनके गाडी, बैल आदिका मी, अपने कामके लिये, किसी प्रकारका भाडा आदि दिये विना, उपयोग नहीं करना चाहिये। यहां पर एक यह भी बात कही गई है कि कुछ लोग चैत्यके द्रव्यको अर्थात् मन्दिरोंमें जमा होनेवाले रूपयों वगैरह शिक्कोंको लेकर उनमेंसे अच्छे अच्छे शिक्कों को अपने पास रख लेते हैं और अपने पासवाले शिक्कोंमें जो घिसे हुए अथवा कुछ नुकसानीवाले शिके होते हैं उनको बदल कर सूत्रधार (सलावट ) आदि कर्मकर लोगोंको, वैसे शिके उनकी मजदूरीके वेतनके रूपमें दे देते हैं । सो ऐसा करना भी चैत्यद्रव्यके उपभोगके पापका भागी होने जैसा है। ये सब बातें श्रावकको धर्मकुशल बननेकी दृष्टिसे कही गई हैं। • अर्थकुशलकी दृष्टिसे कहा है कि-श्रावकको सदैव ऐसा ही भाण्ड अर्थात् माल लेना-वेचना चाहिये जिसमें किसी प्रकारका नुकसान न पहुंचे । ___ कामकुशल होनेके संबंधमें कहा है कि-श्रावक अपनी पत्नीको सदैव प्रसन्न रखनेका प्रयत्न करे । संभोगादिमें भी सावधानतापूर्वक प्रवृत्त हों। संभोग करनेके पूर्व स्त्रीसे स्नान और मुख शुद्धि आदि क्रियाएं करवानी चाहिये । उसको किसी प्रकारकी रहस्यमय बात न बतलानी चाहिये । ऐसा ही व्यवहार वेश्या स्त्रीके साथ भी रखना चाहिये । पाठकोंको यह बात पढ कर कुछ विलक्षणसा लगेगा कि श्रावकका वेश्यासे क्या संबंध । परंतु यह उस समयकी समाजमें प्रचलित सर्वसामान्य रूढिका सूचक विधान है। वेश्या जातिका उस समय समाजमें एक प्रकारका विशिष्ट स्थान था । वेश्याओंके साथ संपर्क रखना और उनके स्थानमें आना-जाना तथा उनसे सहवास करना कोई खास निंद्य व्यवहार नहीं समझा जाता था Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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