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________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन । सकता । इसमें भी विशेष करके उनकी स्त्रियोंका वेष तो बहुत ही सादा और शिष्टताका सूचक होना चाहिये। __इस प्रकार वेषकी शिष्टताका कथन करते हुए जिनेश्वर सूरिने संक्षेपमें श्रावकको कैसे वस्त्र शोभा दे सकते हैं इसका भी थोडासा विधान कर दिया है । यह वस्त्र-विधान उस समयकी सादगीका सूचक है । इसमें तीन वस्त्र विशेषका सूचन किया गया है जिसमें एक तो धोती है दूसरी अंगिया है और तीसरा दुप्पट्टा अर्थात् उत्तरीय वस्त्र है । धोती कैसे पहननी चाहिये, अंगिया कैसी होनी चाहिये और उत्तरीयको कैसे डालना चाहिये इसका भी निर्देश किया गया है।' ___ इसी तरह श्राविकाओंका वस्त्र-परिधान कैसा होना चाहिये इसका भी थोडासा निर्देश कर दिया है। इसके विपरीत, नट विटादि अशिष्ट जनोंका वेष कैसा होता है उसका स्वरूप बतानेके लिये थोडासा उल्लेख करके, वैसे ही अशिष्ट समाजकी वेश्यादि स्त्रियोंका वस्त्रालंकार किस प्रकारका होता है उसका भी वर्णन किया है। ___ व्यवहार सरल रखना' ऐसा जो चतुर्थ स्थानक कहा है उसमें भी धार्मिक और व्यावहारिक दोनों दृष्टिसे श्रावकको अपना व्यवहार कैसा सीधा-सादा और प्रामाणिक रखना चाहिये, इस विषयमें कुछ लौकिक उपदेश भी कहा है। जैसा कि - अर्थोपाय अर्थात् अर्थोपार्जन निमित्त जो व्यवसाय किया जाय उसमें श्रावकको सदैव सच्चाईका व्यवहार रखना चाहिये । तोल नापमें न्यूनाधिकता न करनी चाहिये। जो वस्तु जैसी देनी-दिलानी बतलाई गई हो उसमें फेर-फार न करना चाहिये । अतिलोभके वश हो कर किसीको ऊधार आदि न देना चाहिये । जिस वस्तुका व्यापारनिमित्त संग्रह किया जाय वह प्रचलित मूल्यसे अधिक मूल्यकी न होनी चाहिये । व्यवसाय निमित्त हाथी, घोडा, बैल आदिकोंका विशेष संग्रह न करना चाहिये। क्यों कि अधिक संग्रह करनेसे उनको दाना चारादिके खिलानेमें अधिक व्यय होगा और मरजाने आदिके कारणसे हानि होगी। इसी तरहसे धान्य अर्थात् अनाजका भी विशेष संग्रह नहीं करना चाहिये । क्यों कि ज्यादह समय तक पडे रहनेसे उसमें कीडे आदिके पडनेसे सड जानेका और उससे हानि होनेका संभव रहता है । श्रावकको खास करके कपास, रूई, सूत, वस्त्र, प्रवालं, मोती, मंजिष्ठा, सुपारी इत्यादि चीजोंका व्यवसायनिमित्त संग्रह करना अच्छा है । क्यों कि ऐसी वस्तुओंके, अधिक समय तक भांडशालाओं (गोदामों) में पड़े रहने पर भी किसी विशेष प्रकारकी अर्थहानिकी संभावना नहीं रहती । बहुत लाभ होनेकी संभावनाके होने पर भी किसी ग्राहकको अंग ऊपर १ इस वन-विधानमें उस समय प्रचलित देश्य शब्दों का प्रयोग किया गया है जो विशेषज्ञोंके लिये अध्ययनीय है । यथा संतलयं परिहाणं झलंब चोडाइयं च मज्झिमयं । सुसिलिटुमुत्तरीयं धम्म लच्छि जसं कुणइ ॥ २,१६ २ नट विटोंका वेष कैसा होता है उसका उल्लेख इस प्रकार है - लंखस्स व परिहाणं गसह व देहं तहंगिया गाढा । सिरवेढो टमरेणं वेसो एसो सिडिंगाणं ॥ २,१९ ३ वेश्यादिका वस्त्र-परिधान कैसा होता है उसका वर्णन इस तरह है - असिलिट्ठ नीविबंधो चूडा संफुसइ पायनहरेहं । जंघद्धं उग्घाडं परिहाणं हवइ वेसाणं ॥ २,२० सिंहिणाण मग्गदेसो उग्घाडो नाहिमंडलं तह य । पासा य अद्धपिहिया कंचुओ सहइ वेसाणं ॥ २,२१ ४ ववहारे पुण अणं न देइ पडिरूवगं नवा कुणइ । ४,६ ५ अस्थोवाओ पुन्नं तं पुण सञ्चण ववहरंतस्स । अहवा अइलोभेणं उद्धरर्गमाइ मो दइ ॥ ४,१२ . भंड पि अइमहग्धं न संगहे कुणइ निययमुल्लाओ । आस-करि-गोणमाई न नियट्टा धारए मइमं ॥ ४,१३, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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